Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
कि व्यवहारनय से जो 'घी का घड़ा' कहा है वह असत्यार्थ है क्योंकि घी का बना हुआ घड़ा नहीं है, किन्तु निश्चयनय का निरूपण 'मिट्टी का घड़ा' सत्यार्थ है, क्योंकि मिट्टी का बना हुआ घड़ा है। मोक्षमार्ग प्रकाशक का उक्त उपदेश उस जीव के लिये नहीं है जो व्यवहारनय के निरूपण 'घी का घड़ा' का अभिप्राय यह जानता है कि घड़े के अन्दर घी रखा हुआ है अर्थात् प्राधार-प्राधेयसम्बन्ध की अपेक्षा से 'घी का घड़ा' कहा जाता है। यदि मोक्षमार्गप्रकाशक के उक्त कथनानुसार 'घी और घड़े के आधार-प्राधेयसम्बन्ध' को भी असत्यार्थ मान लेवे तो प्रत्यक्ष से विरोध प्रा जावेगा। अतः मोक्षमार्गप्रकाशक का उक्त उपदेश सर्वत्र सर्वजीवों के लिये नहीं दिया गया है, और न सर्वत्र 'मोक्षमार्गप्रकाशक' के उक्त सिद्धांत का प्रयोग करना उचित है। 'रागादिभावों का और जीव का व्याप्यध्यापक व कर्ताकर्मसम्बन्ध व्यवहारनय से है और निश्चयनय से रागादि और पुद्गलकर्म का व्याप्यव्यापक व कर्ताकर्मसम्बन्ध है' ऐसा स. सा. गा. ३९-६८ व गाथा ७५ की आत्मख्याति टीका में कहा है; किन्तु पंचास्तिकाय गाथा ५७ व ५८ में यह कहा है कि-'निश्चयनय से रागादि का कर्ता जीव है और व्यवहारनय से रागादि का कर्ता पुद्गलकर्म है।' यदि व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ माना जावे तो रागादि का कर्ता न जीव है और न पुदगल है। अतः व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ मानने में बहत दोष पाते हैं।
-जै.सं. 28-8-58/V/मोखिकघर्चा शुद्ध निश्चयनय भो सर्वथा भूतार्थ नहीं है शंका-जब निश्चय की दृष्टि से व्यवहार को अभूतार्थ ( असत्यार्थ ) कहा जाता है तो व्यवहार की प्रधानता से निश्चयनय को भी अभूतार्थ ( असत्यार्थ ) कहना चाहिये, क्योंकि स. सा. गा. ५३-५४-५५ में बताया है कि उदयस्थान, बंधस्थान, गुणस्थानादि सब पुद्गल के हैं जीव के नहीं हैं। यदि सर्वथा ऐसा ही मान लिया जावे तो मोक्षपुरुषार्थ की तथा संवर और निर्जरा की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। सिद्ध और संसारी आत्मा सर्वथा समान हो जावेंगी, परन्तु धवला आदि किसी ग्रन्थ में व्यवहारनय की मुख्यता से संसारीजीवों को पर्यायदृष्टि से कथंचित् मूर्तिक माना गया है । इसीकारण व्यवहार की मुख्यता से निश्चयनय क्या अभूतार्थ है ?
___समाधान–समयसार गाथा ११ में 'शुद्धनय' को 'भूतार्थ' 'व्यवहारनय' को 'अभूतार्थ' कहा है, उसका अभिप्राय यह है 'जो शुद्धजीव में न हो वह अभूतार्थ है' और उसका वर्णन करनेवाला व्यवहारनय है। जैसे रागादि शुद्धजीव में नहीं है अतः ‘रागादि जीव के हैं' यह व्यवहारनय का कथन है। 'जो शुद्धजीव में हो वह भूतार्थ हैं' उसका वर्णन करने वाला शुद्धनिश्चयनय है। शुद्धजीव में रागादि उदयस्थान, बंधस्थान व गुणस्थान नहीं हैं, क्योंकि शूद्धजीव गुणस्थान आदि से अतीत हैं अतः शुद्ध (निश्चय) नय की दृष्टि में ये गुणस्थानादि जीव के नहीं हैं। शुद्धनय का विषय शुद्धजीव है अशुद्धजीव नहीं है । व्यवहारनय का विषय कर्मोपाधिसहित जीव है अतः व्यवहारनय से जीव के गुणस्थानादि हैं ।
समयसार गाथा ११ पर श्री जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीका में निश्चयनय को भी भूतार्थ और अभूतार्थ दो प्रकार का और व्यवहारनय को भी भूतार्थ और अभूतार्थ दो प्रकार का बतलाया है । शुद्ध निश्चयनय भूतार्थ है
और अशुद्धनिश्चयनय अभूतार्थ है, क्योकि अशुद्धनिश्चयनय का विषय अशुद्धजीव है। शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय को भी व्यवहार कह दिया गया है । अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय भूतार्थ है, क्योंकि इसका विषय शुद्धजीव है । उपचरितसद्भूत व्यवहारनय अभूतार्थ है, क्योंकि इसका विषय अशुद्ध जीव है ।
समयसार गाथा ५ में यह प्रतिज्ञा की गई है कि 'एकत्वविभक्तमात्मा' का स्वरूप दिखाया जावेगा। 'एकत्वविभक्तआत्मस्वरूप' में गुणस्थान आदि नहीं हैं अतः समयसार गाथा ५०-५५ में इन गुणस्थानादि २९ भावों
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