Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-मो० मा० प्र० में ही लिखा है इसलिये जो उपदेश हो उसको सर्वथा न समझ लेना चाहिए। उपदेश के अर्थ को जानकर वहाँ इतना विचार करना चाहिए कि यह उपदेश किसप्रकार है किस प्रयोजन को लेकर है और किस जीव को कार्यकारी है।'
पृ० २८८ पर कहा है-'जैसे वैद्य रोग मेटया चाहे है। जो शीत का आधिक्य देखे, तो उष्ण औषधि बतावै और पाताप का आधिक्य देखै तो शीतल औषधि बतावै । तैसे श्री गुरु रागादिक छडाया चाहे है। जो रागादिक पर का मानि स्वच्छन्द होय निरुद्यमी हो ताको उपादानकारण की मुख्यता करि रागादिक प्रात्मा का है ऐसा श्रद्धान कराया। बहुरि जो रागादिक प्रापका स्वभाव मानि तिनिका नाश का उद्यम नाहीं करे हैं, ताको निमित्तकारण की मुख्यता करि रागादिक परभाव हैं ऐसा श्रद्धान कराया है।'
मो० मा० प्र० के उपर्युक्त दोनों वाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाना जीवों को नानाप्रकार का मिथ्यात्व रोग लग रहा है । क्योंकि मिथ्यात्व रोग नानाप्रकार का है, अतः उसका उपचार भी नाना उपदेशरूपी
औषधियों द्वारा बतलाया गया है। इसलिये किसी भी उपदेश को सर्वथा न समझ लेना चाहिये । अपने मिथ्यात्वरूपी रोग के कारण को पहिचान कर, उन नाना उपदेशरूपी औषधियों में से उस कारण को दूर करनेवाली औषधि का सेवन करेगा तो रोग उपशांत हो जायगा। यदि विपरीत औषधि का सेवन करेगा तो मिथ्यात्वरूपी रोग पुष्ट हो जाएगा। समयसार गाथा ५० से ५५ तक में निश्चयनय की अपेक्षा रागादि को पुद्गलमय कहे और गाथा ५६ में व्यवहारनय की अपेक्षा जीव के कहे है। यदि कोई निश्चयनय के कथन को सत्यार्थ मान और व्यवहारनय के कथन को असत्यार्थ मान अपने-आपको रागादि से सर्वथा भिन्न अनुभव है। तिसको व्यवहारनय की उपदेश रूपी प्रौषधि का सेवन करना चाहिये, अर्थात् व्यवहारनय के उपदेश को सत्यार्थ मान अर्थात् रागादि को आत्मा के भाव मानकर उनको दूर करने का उपाय करना चाहिये । अन्यथा उसका मिथ्यात्वरूपी रोग दूर नहीं होगा। किन्तु निश्चयनय के उपदेशरूपी औषधि सेवन करने से उसका मिथ्यात्वरूपी रोग पुष्ट होता जायगा। इसी बात को मो० मा० प्र० पृ० २९१ पर कहा है।
'यहाँ कोऊ कहे-हमको तो बंध मुक्ति का विकल्प करना नाहीं जानै शास्त्र विषै ऐसा कह 'जो बंधउ मुक्कउ मुणइ, सो बंधइ णिमंतु।' याका अर्थ-जो जीव बंध्या, मुक्त भया माने है, सो निःसंदेह बंधे है। ताको कहिये है—जो जीव केवल पर्यायदृष्टि होय बंध मुक्तअवस्था को ही माने है, द्रव्यस्वभाव का ग्रहण नाहीं करे है, तिनको ऐसा उपदेश दिया है, जो द्रव्यस्वभाव को न जानता जीव बंध्या मुक्त भया मान, सो बंधे है । बहुरि जो सर्वथा ही बंध मुक्ति न होय, तो सो जीव बंधे है, ऐसा काहे को कहै। और बंध के नाश का मुक्त होने का उद्यम काहै को करिये है। काहे को प्रात्मानूभव करिए है। तातै द्रव्यदृष्टि करि एकदशा है। पर्यायष्टि करि अनेक अवस्था हो हैं, ऐसा मानना योग्य है, ऐसे ही अनेकप्रकार करि कैवल निश्चय का अभिप्रायत विरुद्ध श्रद्धानादि करै और जिनवानी विष तो नाना अपेक्षा, कहीं कैसा कहीं कैसा कहीं कैसा निरूपण किया है। यह अपने अभिप्रायतै निश्चयनय की मुख्यता करि जो कथन किया होय, ताहि कौं ग्रहिकरि मिथ्यादृष्टि को धार है।'
पृ० २९२ पर कहा है-'यहु चितवन जो द्रव्यदृष्टि करि करो हो, तो द्रव्य तो शुद्ध-अशुद्ध सर्वपर्यायनिका समदाय है। तुम शद्ध ही अनुभव काहे को करी हो। अर पर्यायदृष्टि करि करो हो तो तुम्हारे तो वत्तमान अशद्धपर्याय है। तुम आपको शुद्ध कैसे मानौ हो ? बहुरि जो शक्ति अपेक्षा शुद्ध मानो हौ तौ मैं ऐसा होने योग्य हूँ, ऐसा मानो । ऐसे काहे को मानौ हो । तात आपको शुद्धरूप चितवन करना भ्रम है । काहे तै-तुम आपको सिद्ध समान माया तो यह संसार-अवस्था कौन के है। अर तुम्हारे केवलज्ञानादिक हैं तो ये मतिज्ञानादिक कौन के हैं। अर
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