Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१३२० ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समयसार गाथा १२ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने यह कहा है-'ये तु प्रथमद्वितीयपाधनेकपाकपरम्परापच्यमानकात स्वरस्थानीयमपरमंभावमनुभवंति तेषां पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकारीस्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशितयोपशितप्रतिविशिष्टकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान् ।'
अर्थ-'जो पुरुष प्रथम, द्वितीयादि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्धस्वर्ण के समान जो अनुस्कृष्टमध्यमभाव का अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिमताव से उतरे हए शुद्धस्वर्ण के समान उत्कृष्टभाव का अनुभव नहीं होता, इसलिये अशुद्धद्रव्य को कहने वाला होने से जिसने भिन्न-भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेकभाव दिखाये हैं ऐसा व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमाला के समान होने से, जानने में प्राता हया उस काल का प्रयोजनवान है।' यहाँ पर यह बतलाया गया है कि जो संसारावस्था ( अशुद्ध-अवस्था ) में स्थित है वह सिद्ध-अवस्था (शुद्धअवस्था) का अनुभव ( स्वाद ) नहीं कर सकता, किन्तु जो निश्चयाभासी संसार अवस्था में भी अपने आपको शुद्ध मान लेता है उसके लिये जीव की नानापर्यायों को बतलानेवाला व्यवहारनय प्रयोजनवान है । अतः यहाँ पर समयसार गाथा १२ में निश्चयसापेक्ष व्यवहारनय अर्थात् सम्यग्व्यवहारनय का कथन है ।
श्री जयसेनाचार्य ने समयसार गाथा १२ की टीका में इसप्रकार कहा है-'अपरमे अशुद्ध असंयतसम्यरदृष्टयपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षले शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा ठिदा स्थिताः।'
अर्थ–'अपरमे अर्थात् अशुद्ध अर्थात् असंयतसम्यग्दृष्टि श्रावक-सरागसम्यग्दृष्टि लक्षणवाले शुभोपयोगी प्रमत्त, अप्रमत्तगुणस्थानवाले अथवा भेदरत्नत्रय वाले ।' इससे भी स्पष्ट है कि यहाँ पर सम्यग्व्यवहारनय का कथन है। और उसको प्रयोजनवान कहा है।
श्री पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में कहा है
व्यवहारोभूतार्थो भूतार्थोदेशितस्तु शुद्धनयः । शुद्धनयमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ॥६०६॥
-जं. ग. 5-3-64/IX/ स. कु. सेठी व्यवहारनय या उसका विषय झूठ नहीं है शंका-शास्त्रों में व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा गया है इसका अभिप्राय क्या है ? क्या व्यवहारनय का विषय अभूतार्थ है इसलिए इसको अभूतार्थ कहा गया है ? अभूतार्थ का अर्थ क्या झूठ है ? गधे के सींग के समान क्या व्यवहारनय का विषय है ?
समाधान व्यवहारनय का विषय पर्याय है जो कालिक मत अर्थात भूत नहीं है इसलिये व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा गया है ।
"ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओ त्ति एयट्ठो।" ( गो० जी० ५७२ ) "व्यवहारेण विकल्पेन भेदेन पर्यायेन ।" ( स. सा. गाथा १२ टीका )
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