Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan

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Page 451
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ १३१५ अर्थात-व्यवहारनय प्राणियों के प्रयोजन का कथन करता है और शुद्धनय सत्यार्थ का कथन करता है जो मुनि शुद्धनय का प्राश्रय करते हैं वे मुनि परम पद को प्राप्त करते हैं।' यह ही समयसार गाथा ११ में कहा गया है' । क्योंकि गाथा १२ के 'व्यवहारदेसिदा पुण जेदु अपरमेट्ठिदाभावे' इन शब्दों द्वारा यह कहा गया है कि 'जो अनुत्कृष्ट अवस्था में ठहरे हुए हैं वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं ।' जयधवल पुस्तक १ पृ.८ पर भी कहा है “गौतमस्वामी ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर चौबीस अनुयोग द्वारों के आदि में 'णमोजिणाणं' इत्यादि रूप से मंगल किया है। यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है सो भी ठीक नहीं है । जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है, उसी का आश्रय करना चाहिये, ऐसा मन में निश्चय करके गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोग द्वारों के प्रादि में मंगल किया है।' व्यवहारनय का आश्रय करना चाहिये ऐसा मन में निश्चय करके श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने समयसार आदि प्रत्येक ग्रन्थ के प्रारम्भ में तथा श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने टीका के तथा पुरुषार्थ सिद्धय पाय आदि ग्रन्थों के प्रारम्भ में 'मंगल' किया है । जिन प्राचार्यों ने स्वयं व्यवहारनय का प्राश्रय लेकर मंगल किया है, वे प्राचार्य व्यवहारनय असत्य है, ऐसा कैसे कह सकते हैं ? यदि कहा जाय कि श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने पुरुषार्थसिद्धय पाय के श्लोक ५ में व्यवहारनय को झूठा कहा है, सो ऐसा कहना भी उचित नहीं है। श्लोक ५ के शब्द इसप्रकार हैं-'निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्य-भूतार्थम् ।' अर्थात्-इस संसार में निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ कहते हैं।' भूत शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे- वे मूलद्रव्य जिनकी सहायता से सारी सृष्टि की रचना हुई है, द्रव्य, महाभूत, सृष्टि का कोई जड़ या चेतन, अचर या चर पदार्थ या प्राणी, जीव, सत्य, बीता हुअा समय, एकप्रकार पिशाच या देव, मृतशरीर, शव, मृतप्राणी की प्रात्मा, प्रेत, जिन, शैतान । ( नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित कोष ) । यदि यहाँ पर 'भूतार्थ का अर्थ 'सत्यार्थ' किया जाय और अभूतार्थ का अर्थ असत्यार्थ किया जाय तो यह अर्थ होता है कि निश्चयनय सत्यार्थ ( सच्ची ) और व्यवहारनय असत्यार्थ ( झूठी ) कही जाती है किन्तु श्री अमृतचन्द्राचार्य का लक्ष्य 'व्यवहारनय को झूठ' कहने का नहीं रहा है क्योंकि श्लोक ६ में वे कहते हैं-'अबुधस्य बोधनाथं मुनीश्वरा देश्यन्त्यभूतार्थम् । अर्थात्-'प्राचार्य प्रज्ञानी जीवों को समझाने के लिये अभूतार्थ को कहते हैं। और झूठ के द्वारा अज्ञानी नहीं समझाया जा सकता है। अतः यहाँ पर 'भूत' का अर्थ 'द्रव्य' होना चाहिये, क्योंकि समयसार गाथा ५६ को टीका में स्वयं श्री अमृतचन्द्राचार्य ने निश्चयनय को द्रव्याश्रित कहा है और व्यवहारनय को पर्यायाश्रित कहा है । 'अभूत' का अर्थ 'अद्रव्य' अर्थात् पर्याय हो जाता है । पु. सि. श्लो. ८ में श्री अमृतचन्दाचार्य ने कहा है कि-'व्यवहार और निश्चय को तत्त्व ( यथार्थ ) रूप से जानकर जो मध्यस्थ हो जाता है वही शिष्य उपदेश के समस्त फल को प्राप्त करता है। यदि निश्चयनय सच्चा और व्यवहार नय झूठा होता तो श्री अमृतचन्द्राचार्य श्लो. ८ में यह कहते कि जो निश्चयनय को सच्चा और व्यवहारनय को झूठा जानकर, व्यवहारनय को छोड़ देता है और निश्चयनय को ग्रहण करता है वही शिष्य उपदेश के समस्त फल को प्राप्त करता है, किन्तु श्लोक ८ में ऐसा नहीं कहा गया है इससे स्पष्ट है कि निश्चयनय सच्चा और व्यवहारनय झूठा; ऐसा अभिप्राय आचार्य महाराज का नहीं था, किन्तु उनका अभिप्राय निश्चय भूतार्थ ( द्रव्याथिक ) और व्यवहारनय अभूतार्थ ( पर्यायाथिक ) है, ऐसा रहा है । समयसार में भी यह ही कहा गया है १. ववहारोभूयत्थो भूतयत्योदेसिदो दु सुद्धणओ। भूपत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवई जीवो।। (समयसार गाथा ११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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