Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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ये सभी नय यदि परस्पर निरपेक्ष होकर वस्तु का निश्चय कराते हैं तो मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा के बिना ये नय जिसप्रकार की वस्तु का निश्चय कराते हैं वस्तु वैसी नहीं है' । द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिकनय का, अर्थात् निश्चयनय और व्यवहारनय का जो जुदा-जुदा विषय है वह द्रव्य का लक्षण नहीं है, इसलिये अलग-अलग
लनय मिथ्यादृष्टि हैं। सर्वथा द्रव्याथिक ( निश्चय ) नय या सर्वथा पर्यायाथिक ( व्यवहार ) नय के मानने पर संसार, सुख, दुख, बंध, मोक्ष कुछ भी नहीं बन सकता है । केवल अपने-अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्याष्टि हैं। परन्तु यदि ये सभी नय सापेक्ष हों तो समीचीन हैं। घटादि पदार्थ केवल अन्वयरूप नहीं हैं. क्योंकि उनमें भेद भी पाया जाता है तथा केवल भेदरूप भी नहीं हैं क्योंकि उनमें अन्वय भी पाया जाता है। द्रव्याथिक ( निश्चय ) नय नियम से अपने विरोधीनयों के विषय स्पर्श से रहित नहीं है और उसीप्रकार पर्यायाथिकनय ( व्यवहारनय ) भी नियम से अपने विरोधीनय के विषयस्पर्श से रहित नहीं है। किन्तु विवक्षा से इन दोनों में भेद पाया जाता है।
द्रव्याथिक ( निश्चय ) और पर्यायाथिक ( व्यवहार ) नय एकान्त से मिथ्यादृष्टि ही हैं ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्ष का निराकरण नहीं करते हए ही अपने पक्ष के अस्तित्व का निश्चय करने में व्यापार करते हैं उनमें कथंचित् समीचीनता पाई जाती है । ये सभी नय अपने-अपने विषयके कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकान्तरूप समय के ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है', इसप्रकार का विभाग नहीं करते हैं । सुनयों की प्रवृत्ति सापेक्ष होती है इसलिये उनमें कुछ भी कठिनाई नहीं है । जो नय प्रतिपक्षनय के निराकरण में प्रवृत्ति करता है वह नय समीचीन नहीं होता है।
नय का लक्षण तथा सापेक्षनय समीचीन और निरपेक्षनय असमीचीन, इसप्रकार नय का सामान्य कथन हो जाने के पश्चात् व्यवहारनय के विषयों पर विचार होता है। समयसार आत्मख्याति में व्यवहारनय के तीन विषय कहे गये हैं, १. द्रव्य में गुणकृत भेद ( गाथा ७ ) २. द्रव्य में पर्यायकृत भेद ( गाथा ४६ व ५६ ), ३. पराश्रित कथन ( गाथा २७२ को टीका)। व्यवहारनय के इन तीन विषयों की अपेक्षा से प्रात्म ( जीव ) द्रव्य का विचार करने पर ये तीनों विषय प्रात्मद्रव्य में पाये जाते हैं।
१. आत्मा में दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन गुण पाये जाते हैं । यदि द्रव्य में गुणकृतभेद स्वीकार न किया जावे तो, प्रथम क्षायिकसम्यग्दर्शन ( चौथे से सातवें गुणस्थान तक ), उसके पश्चात् क्षायिकचारित्र (बारहवें गुणस्थान में ) और उसके पश्चात् क्षायिकज्ञान ( तेरहवें गुणस्थान में ) होता है, ऐसा तीनों गुणों के क्षायिक होने में कालकृत भेद सम्भव नहीं हो सकता । आज तक किसी भी जीवके, दर्शन, चारित्र, ज्ञान ये तीनों गुण युगपत् क्षायिक नहीं हुए और न भविष्य में होंगे, क्रमशः क्षायिक होते हैं, हुए थे और होंगे। दर्शन, ज्ञान और चारित्र का लक्षण तथा कार्य भी भिन्न-भिन्न है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रात्म-द्रव्य में ये तीन पृथकपृथक् गुण हैं । अतः व्यवहारनय का विषय 'गुणकृत भेद' प्रात्मद्रव्य में किसी अपेक्षा से पाया जाता है। प्रवचनसार गाथा ९३ में भी कहा है कि द्रव्यगुणात्मक हैं। अभेद की दृष्टि में गुणकृत भेद दिखाई नहीं देता है।
१. ज.ध. पु. १ पृ. २४५। ४. ज.ध.पु. १ पृ. २५५। ७. ज.ध. पु. १ पृ.१०।
२. ज.ध.पु. १ पृ. २४८ | ५. ज. प. पु. १ पृ. १५६। ८. ज.ध पु. 3 पृ. २६२ ।
3. ज. प. पु. १ पृ. २४६-40। ६. ज.ध.पु. १ पृ. १५७।
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