Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३०३
श्री पं० कैलाशचन्दजी ने लिखा है-इन दसधर्मों का सार सुख ही है, क्योंकि इनका पालन करने से स्वर्ग मोर मोक्ष का सुख प्राप्त होता है।
गाथा ३९५ की टीका-"ततश्च समग्रज्ञानादीनां पानी भवति । अतः स्वर्गापवर्गफलप्राप्तिः।" श्री पं० कैलाशचन्दजी लिखते हैं-"सम्यग्ज्ञान का पात्र होने से उसे स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
पूयादिसु जिरवेक्खो जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए ।
कम्ममलसोहण8 सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥ ४६२ ॥ संस्कृत टीका-"श्रुतलाभः सुखकरः स्वर्गमुक्त्यादिशर्मनिष्पादकः ।"
श्री पं० कैलाशचन्दजी कृत अर्थ-"आदर, सत्कार, प्रशंसा और धनप्राप्ति की वांछा न करके ज्ञानावरणादि कर्मरूपी मल को दूर करने के लिये जो जैनशास्त्रों को पढ़ता पढ़ाता है, उसे स्वर्ग और मोक्ष का सुख प्राप्त होता है।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ७६ की टीका में पुण्य का लक्षण इसप्रकार कहा गया है
"पुण्यं शुभकर्म सम्यक्त्वं व्रतदानादिलक्षणं संचिनोति संग्रहीकरोति।" यहाँ पर सम्यक्त्व को पुण्य अथवा शुभकर्म कहा गया है।
श्री पं० कैलाशचन्दजी पृ. २३ पर लिखते हैं- "इन सम्यक्त्व, व्रत, निन्दा गर्दा आदि भावों से पुण्यकर्म का बंध होता है।"
श्री वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य आचारसार में 'धर्म स्वर्गर्मोक्षशर्मप्रदमपि' शब्दों द्वारा लिखते हैं कि धर्म स्वर्ग व मोक्षसुख का देनेवाला है। श्री सोमदेव आचार्य यशस्तिलकचम्पू में 'धर्मः परापरफलः परापरफलप्रायःधर्मः' इन शब्दों द्वारा लिखते हैं कि धर्म पर-अपर अर्थात् स्वर्ग मोक्ष का देनेवाला है। श्री सकलकोतिआचार्य प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में 'दर्शनम् स्वर्गसोपानं; दर्शनं स्वर्गमोक्षकमूलं' शब्दों द्वारा सम्यक्त्व को स्वर्ग की सोपान अथवा स्वर्ग-मोक्ष का कारण बतलाया है।
इसप्रकार श्री कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्रादि प्रायः सभी प्राचार्यों ने सम्यक्त्वादि से पुण्य बंध स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है। प्रश्न यह हो सकता है कि जो पुण्यबंध का कारण है वह मोक्ष का कैसे कारण हो सकता है ?
बदन्ति फलमस्यैव धर्मस्य श्रीजिनेश्वराः ।
नित्याभ्युदयस्वर्गादिसुखं साक्षाद्धि मुक्तिजम् ॥ ३॥१०४ ॥ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार अर्थ-श्री जिनेन्द्र ने धर्म का फल सदा ऐश्वर्य-विभूतियों का प्राप्त होना, स्वर्गसुख प्राप्त होना और साक्षात् मोक्षसुख प्राप्त होना बतलाया है ।
स्थूलदृष्टि से यह बात ठीक है कि जो भाव बन्ध के कारण हैं, उस भाव से संवर निर्जरा व मोक्ष नहीं हो सकता है, किन्तु सम्यग्दृष्टि के जघन्यरत्नत्रय अर्थात् असमग्ररत्नत्रय से जो पुण्यबन्ध होता है वह पुण्यबन्ध भी मोक्ष का कारण है संसार का कारण नहीं है।
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