Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१३०४ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने “स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः।" इन शब्दों द्वारा बतलाया है कि असमग्ररत्नत्रय से होनेवाला बन्ध मोक्ष का कारण है, संसार का कारण नहीं है। इसी बात को श्री देवसेनाचार्य ने निम्न दो गाथात्रों द्वारा स्पष्ट किया है।
सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा। मोक्खस्स होइ हेउ जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥ ४०४ ॥ तम्हा सम्मादिट्री पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवई ।
इय पाऊण गिहत्यो पुण्णं चायरउ जत्तेण ॥ ४२४ ॥ (भावसंग्रह) इन दो गाथाओं द्वारा यह बतलाया गया है कि सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं है मोक्ष कारण है। ऐसा जानकर गृहस्थ को पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिये।
"भेदज्ञानी स्वकीयगुणस्थानानुसारेण परम्परया मुक्तिकारणभूतेन तीर्थकरनामकर्मप्रकृत्यादिपुद्गलरूपेण विविधपुण्यकर्मणा बध्यते ।" ( स. सा. गा. १८० टीका पृ. १५५ )
भेदज्ञानी अपने गुणस्थान के अनुसार तीर्थंकरादि पुण्यकर्म को बांधता रहता है, वह पुण्यकर्म परम्परा से मुक्ति का कारण है।
यथा रागादिदोषरहितः शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चयधर्मो यद्यपि सिद्धगतेरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथापि निदानरहितपरिणामोपार्जिततीर्थकरप्रकृत्युत्तमसंहननादिविशिष्टपुण्यकर्मापि सहकारीकारणं भवति ।
( पंचास्तिकाय गाथा ८५ टीका) यद्यपि राग-द्वोषरहित निश्चयधर्म सिद्धगति के लिये उपादानकारण है तथापि तीर्थंकरप्रकृति उत्तमसंहननादि विशिष्ट पुण्यकर्म भी सिद्धगति के लिये सहकारीकारण हैं ।
आप्तमीमांसा श्लोक की टीका में श्री अकलंकदेव तथा श्री विद्यानन्द आचार्य "मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात् ।" इन शब्दों द्वारा परमपुण्य तथा अतिशयचारित्ररूप विशेष परुषार्थ इन दोनों के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं।
इसप्रकार इन आर्षवचनों द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्त्व आदि के द्वारा बदलनेवाला तीर्थकरादि पण्यकर्म मोक्ष का कारण है बन्ध अर्थात् संसार का कारण नहीं है।
सम्यक्त्वबोधचारिवलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः ।
मुख्योपचाररूपः प्रापयति परपदं पुरुषम् ॥२२२॥ ( पुरुषार्थ सिध्युपाय ) इसप्रकार मुख्य ( पूर्ण समग्र ) और उपचार ( जघन्य असमग्र ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रलक्षणवाला मोक्षमार्ग प्रात्मा को परमात्मपद प्राप्त कराता है।
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥२२॥ ( पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय)
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