Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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सम्यग्दर्शन नहीं हो जाता है उस उपदेश के साथ-साथ कषाय का मंदोदय तथा तत्त्वविचार करने की शक्तिरूप ज्ञानावरण का क्षयोपशम भी होना चाहिये । इस जीवात्मा का तत्त्वपरीक्षा तथा तत्त्वअवधारणरूप पुरुषार्थ भी होना चाहिये। अत: मोक्षप्राप्ति के लिये अनुकूल बाह्य और अंतरंगकारणों की अपेक्षा रहती है। कहा भी है'यद्यपि सिद्धगति में उपादानकारण भव्यजीव होता है तथापि तीथंकरप्रकृति उत्तमसंहननादि विशिष्टपूण्यरूप धर्म सहकारीकारण होते हैं। (पंचास्तिकाय गाथा ८५ की टीका)'।' 'निश्चय व व्यवहाररूप मोक्षकारणों के होने पर ही मोक्षकार्य होता है । ( पंचास्तिकाय गाथा १०६ टीका )।' 'मोक्ष भी होय है सो परम पुण्य का उदय और चारित्र का विशेष आचरणरूप पौरुषते होय है ( अष्टसहस्री कारिका ८८ पृ. २५७ )3 ।' 'सहकारीकारणरूप मनुष्यगति के उदय से रहित अकेली विशुद्धि उन प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद करने में समर्थ नहीं है, क्योंकि कारणसामग्री से उत्पन्न होनेवाले कार्य की विकलकारण से उत्पत्ति का विरोध है ( ध. पु. ६ पृ. १४१ ) इसप्रकार पूर्व कर्मोदय और इस जीवका बुद्धिपूर्वक समीचीनपुरुषार्थ दोनों ही मोक्षकार्य के लिये उपयोगी है।
-ज. ग. 21-3-63/IX/ जिनेश्वरदास प्रात्मा ( कथंचित् ) निष्कारण नहीं है, उसका उत्पादक कारण है शंका-संसार में जितने भी पदार्थ हैं वे सब कारणवान् हैं अर्थात् सब पदार्थों में कार्य-कारण-भाव है। कार्य की निष्पत्ति कारणों द्वारा ही होती है । आत्मा भी एक पदार्थ है परन्तु उसकी उत्पत्ति में कोई कारण नहीं होने से वह निष्कारण है। इसलिये जबकि कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। रा. वा. अ. २ ।
समाधान-शंकाकार ने जो राजवातिक से उद्धत किया है वह बौद्धों का पूर्वपक्ष है। जिसमें आत्मा को निष्कारण कहकर आत्मा का अभाव बतलाया गया है। श्री अकलंकदेव बौद्धों के इस मतका खण्डन करते हुए लिखते हैं
"नरक. देवादि पर्याय आत्मद्रव्य से भिन्न नहीं, आत्मद्रव्यस्वरूप ही हैं। नारकपर्यायादि के उत्पादक मिथ्यादर्शन, अविरत आदि कारण शास्त्रों में वर्णित हैं। इसरीति से जब प्रात्मा का उत्पादककारण सिद्ध है तब अकारणत्वरूप हेतु प्रात्मारूप पक्ष में न रहने के कारण स्वरूपसिद्ध है। [ रा. वा. अ. २ पृ. ६०३ ]
---जं. ग. 23-1-69/VII/ रो ला. मित्तल कार्य सिद्धि में देव व पुरुषार्थ दोनों कारण हैं शंका-प्रत्येक द्रव्य को पर्याय अपनी-अपनी योग्यता से प्रकट होती है। द्रव्यका उससमय उसपर्यायरूप परिणमन होना यह ही द्रव्य का पुरुषार्थ है । पर्याय अर्थात् कार्य की सिद्धि अपनी योग्यता के अनुसार ही होती है। ऐसा मानने में क्या हानि है ?
१. यद्यपि सिद्धगतरुपादानकारणं भव्यानां भवति तथा निदानरहितपरिणामोपार्जिततीर्थंकर प्रकृत्युत्तमसंहननादिविशिष्टपण्यरूपधर्मोपि सहकारिकारण भवति ।
2. निम्ययव्यवहारमोक्षकारणे सति मोक्षकार्य संपवतीति। 3. मोक्षस्यापिपरमपुण्यातिनयवारितविशेषात्मक पौरुषाभ्यामेयसंभवात् ।
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