Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२७७
समाधान-पापका ख्याल ठीक है कि धर्मात्माजीव दुनिया ( संसार ) में अधिककालतक भ्रमण नहीं करता उसकी संसारस्थिति अल्प रह जाती है । एकबार सम्यक्त्व हो जाने पर वह जीव अर्धपुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार में भ्रमण नहीं करता। किसी अपेक्षा यह बात भी सत्य है कि धर्मात्मा ( सम्यग्दृष्टि ) जीव न ( सांसारिक ) सुख दुःख भोगता है । पं० दौलतरामजी ने कहा भी है—'वाहिर नारक कृत दुख भोगे, अंतर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनिसंग पं तिस, परनतिते नित हटाहटी। चिन्मूरत दृग्धारी की मोहि, रीत लगत है अटापटी॥'
किन्तु ईसरी में जो यह बात कही गई 'धर्मात्मा ( सम्यग्दृष्टि ) मनुष्य ज्यादा दिन तक जिन्दा रहता है। अर्थात् अधिक आयुवाला होता है' सो भी सत्य है । मनुष्य आयु शुभ प्रायु है अथवा पुण्यप्रकृति है । यह नियम है कि अतिसंक्लेशपरिणामों से शभाय की कर्मस्थिति अल्प पडती है और विशद्ध परिणामों से अधिक पडती है। सम्यग्दृष्टि के अतिसंक्लेशरूप परिणाम नहीं होते अतः सम्यग्दृष्टि के मनुष्य आयु की अल्पस्थिति नहीं बँधती है। श्री रत्नकरंड श्राबकाचार श्लोक ३५ में कहा भी है-'जो जीव सम्यग्दर्शन करि शद्ध हैं वे व्रतरहित हं नारकीपणा, तिर्यचपणा, नपुसकपणा, स्त्रीपणा को नाहीं प्राप्त होय हैं। अर नीच कुल में जन्म, विकृतअंग तथा अल्पआयु का धारक और दरिद्री नहीं होय है।" इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि धर्मात्मा आदमी ज्यादा दिन तक जिन्दा रहता है।
- -जं. सं. 9-10-58/VI/इतरसेन जैन, मुरादाबाद प्रात्मा में "नास्तित्व' धर्म स्व की अपेक्षा भी एवं पर की अपेक्षा भी शंका-आत्मा में जो 'नास्तित्व' धर्म है वह स्व का अभाव सूचित करता है या पर का? '
समाधान प्रात्मा में जो 'नास्तित्व' धर्म है वह पर की अपेक्षा से भी है और स्वकी अपेक्षा से भी है। 'आत्मा' स्वचतुष्टय ( द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव ) की अपेक्षा से अस्ति है और परचतुष्टय अर्थात् परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्ति है । 'आत्मा' शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ इसप्रकार है-'अत्' धातु निरंतर गमन करनेरूप अर्थ में है। सब गमनार्थक धातुएँ ज्ञानार्थक होती हैं । अतः यहाँ पर 'गमन' शब्द से ज्ञान कहा जाता है। इसकारण जो ज्ञानगुण में सर्वप्रकार वर्तता है वह आत्मा है। प्रात्मा में ज्ञान के अतिरिक्त अनन्तगुण हैं। अन्यगुणों को अपेक्षा 'आत्मा' संज्ञा संभव नहीं है । अतः 'प्रात्मा' ज्ञानगुण की अपेक्षा से है अन्यगुणों की अपेक्षा से प्रात्मा नहीं है । इसप्रकार आत्मा में स्वगुणों की अपेक्षा से 'नास्तित्व' है।
-जं. सं. 22-1-59/V/ घासीलाल जैन; अलीगढ़ (टोंक) संसारी जीव कयंचित् शुद्ध है तथा कथंचित् अशुद्ध शंका-संसारीजीव को क्या किसी भी नय से शुद्ध कहा जा सकता है ?
समाधान-आलापपद्धति में द्रव्याथिकनय के दस भेद कहे गये हैं। उनमें से पहला भेद कर्मोपाधिनिरपेक्षशद्धद्रव्याथिकनय है। इस कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्याथिकनय की अपेक्षा संसारीजीव को सिद्धसमान शुद्ध कहा जा सकता है । क्योंकि इसनय की दृष्टि में कर्मोपाधि की विवक्षा न होने से गौण है। कहा भी है--
"द्रव्यार्थिकस्य दश भेदाः ।। ४६ ॥ कर्मोपाधिनिरपेक्षाः शुद्धद्रव्याथिकः यथा संसारीजीवः सिद्धसदृशशुद्धात्मा ॥४७॥"
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