Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं- ( १ ) भावेन्द्रिय, (२) द्रव्येन्द्रिय । ( स. सि. २/१७-१८) उनमें सेलब्धि व उपयोगरूप भावेन्द्रिय तो प्रात्मा के ज्ञानगुण की पर्याय हैं, अतः आत्मा का और भावेन्द्रिय का प्रदेशभेद नहीं है, किन्तु संज्ञा, संख्या, आदि की अपेक्षा भेद भी है ।
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निर्वृत्ति और उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय है । उनमें से अन्तरंगनिवृत्ति तो ग्रात्मप्रदेशों की विशेष रचना है जो आत्मप्रदेशरूप होने से श्रात्मा से अभिन्न है, किन्तु पर्याय और पर्यायी सर्वथा अभिन्न नहीं हैं कथंचित् भिन्न भी हैं, क्योंकि पर्याय नाशवान है और पर्यायीरूप द्रव्य द्रव्यार्थिकनय से अविनाशी है ।
बहिरंगनिवृत्ति और उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय शरीररूप पुद्गलद्रव्य की पर्यायें हैं इस अपेक्षा से आत्मा से भिन्न हैं, किन्तु शरीर और आत्मा का परस्पर बंध न होकर एक समानजाति द्रव्यपर्याय बनी है इस अपेक्षा से अभिन्न 1
"बंध पडि एयतं लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं ।"
अर्थ - शरीर और आत्मा बंध की अपेक्षा एक हैं, किन्तु लक्षण की अपेक्षा वे भिन्न हैं इसप्रकार आत्मा और इन्द्रियों में एकत्व या अन्यत्व के विषय में एकान्त नहीं है अनेकान्त है । कथंचित् भिन्न है, कांचित् अभिन्न है ।
भावाभाव प्रभाव के कथंचित् भेद व प्रभेद
शंका-तत्त्वार्थ राजवार्तिक पृ० ११४४ पर लिखा है- 'जो पदार्थ नहीं है उसका अभाव है । वह अभाव एकस्वरूप है, क्योंकि अभावस्वरूप से अभाव का भेद नहीं, अभावस्वरूप से वह एक ही है। उस अभाव से भिन्नभाव है और वह अनेकस्वरूप है।' यहाँ प्रश्न है कि वह अभावरूप पदार्थ क्या है तथा उसका क्या स्वरूप है ? यदि कहा जाय कि स्वमें परका अभाव है, किन्तु वह अभाव भी अनेकस्वरूप है, फिर एकस्वरूप क्यों कहा ?
- जै. ग. 9-4-70/ VI/ रो. ला. मित्तल
समाधान -- वस्तु भावाभावात्मक है । यदि अभाव न माना जाय तो वस्तु के वस्तुग्रन्तर अर्थात् अन्यवस्तुरूप होने का प्रसंग आ जायगा, जिससे संकरादि दोषों की सम्भावना हो जायगी । श्रतः प्रत्येकवस्तु में उससे भिन्न सर्ववस्तुनों का अभाव है । वस्तु में वह अभाव एकरूप है । स्व की अपेक्षा से उस प्रभाव के भेद नहीं किये जा सकते हैं, अतः स्व की अपेक्षा से वह अभाव एकरूप कहा गया है । किन्तु पर की अपेक्षा से वह अभाव अनेकरूप है जैसे घट-पटाभाव, पुस्तकाभाव आदि अनेकरूप हैं । जैनधर्म में तुच्छाभाव स्वीकार नहीं किया गया है । जैसे जीव का अभाव प्रजीव नहीं है, किन्तु पुद्गलादि अजीवद्रव्य हैं जिनमें जीवत्वगुरण का प्रभाव है । ग्रतः पुद्गल भावात्मक द्रव्यों को अजीव कहा गया है ।
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- जं. ग. 8-1-70 / VII / शे. ला मित्तल
धर्मात्मा कथंचित् दुनिया में अधिक समय नहीं रहते हैं; कथंचित् रहते भी हैं
शंका- हमारा ख्याल तो यह था कि जो धर्मात्मा जीव हैं वे दुनिया में ज्यादा दिन नहीं रहते, न सुख भोगते हैं और न दुःख भोगते हैं। मगर ईसरी जाने पर यह मालूम हुआ कि धर्मात्मा आदमी ज्यादा दिन तक जिन्दा रहता है । यह कहाँ तक ठीक है ?
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