Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ- वह आत्मा अपने शरीर के बराबर नहीं भी है, अर्थात् समुद्घातश्रवस्था में मूलशरीर से बाहर भी आत्मा के प्रदेश निकल जाने से मूलशरीर के बराबर नहीं रहता । वह आत्मा ज्ञानमात्र है और ज्ञानमात्र नहीं भी है । अर्थात् ज्ञानगुरण को मुख्य करके अन्यगुणों को गौरा करके यदि विचारा जाय तो आत्मा ज्ञानमात्रदृष्टिमें आता है और यदि श्रन्यगुणों को मुख्य किया जाय तो ज्ञानमात्र दृष्टि में नहीं भी श्राता । लोकपूरण केवलीसमुद्रघात की अपेक्षा श्रात्मा विश्वव्यापी है अन्य अवस्था में विश्वव्यापी नहीं है । अथवा केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण लोकालोक को जानने की अपेक्षा श्रात्मा सर्वगत है, क्योंकि सम्पूर्णपदार्थ आत्मा से गत अर्थात् ज्ञात है । सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हुए भी प्रात्मप्रदेश विश्व में व्याप्त नहीं हुए इसलिये विश्वव्यापी नहीं भी हैं ।
श्री अकलंकदेव ने श्रात्मा को चेतन भी कहा है और अचेतन भी कहा है। यह नहीं कहा कि आत्मा चेतन है, अचेतन नहीं है, क्योंकि चेतन के प्रतिपक्षीधर्म प्रचेतन को स्वीकार नहीं करने से एकान्त का पक्ष आ जो मिथ्यात्व है ।
जायगा,
इसीप्रकार जीव स्वदेहप्रमाण भी है और स्वदेहप्रमाण नहीं भी, ज्ञान से जीव भिन्न भी और ज्ञान से जीव अभिन्न भी है । परस्परविरोधी दोधर्मों में से किसी एकधर्म को तो स्वीकार करे और उनके प्रतिपक्षी दूसरे धर्म को अस्वीकार करे तो एकान्तमिथ्यात्व का दोष आ जायगा । अनेक विद्वान अनेकान्त के इस यथार्थस्वरूप को न समने से यह कह देते हैं कि 'ऐसे भी है ऐसे भी है' यह अनेकान्त भ्रमरूप है। किंतु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु को भिन्न-भिन्नदृष्टियों के द्वारा देखने से वह अनेकप्रकार दृष्टिगोचर होती है ।
एक ही मनुष्य अपने पिता की दृष्टि से 'पुत्र' है, किन्तु वही मनुष्य अपने पुत्र की अपेक्षा से 'पिता' है अर्थात् एक ही मनुष्य में 'पुत्र और पितारूप' दोनों धर्म हैं । ये दोनों धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से हैं, एक अपेक्षा से नहीं हैं ।
बौद्धमत को और सांख्यमत को चलानेवाले साधारणव्यक्ति नहीं थे, क्योंकि साधारण व्यक्ति एक नवीनमत नहीं चला सकता इन्होंने भी अनेकान्त ( ऐसे भी है और ऐसे भी है ) को भ्रम बतलाया क्योंकि वे यह समझ नहीं पाये कि यह भिन्न अपेक्षाओं से कथन किया गया है और वे दोनों अपेक्षाएँ सत्य हैं । जैसे संसारी जीव पर्यायार्थिकनय ( व्यवहारनय ) से रागी-द्वेषी है, किन्तु स्वभावनय ( निश्चयनय ) से रागी -द्वेषी नहीं है । ये दोनों ही बातें अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्य हैं । इनमें से किसी एक को सत्य मानना दूसरी को असत्य मानना एक भ्रम है । इसीप्रकार व्यवहारनय से द्रव्य अनित्य है और निश्चयनय से द्रव्य नित्य है । पर्यायों का उत्पाद तथा नाश प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है पर्यायों से भिन्न द्रव्य दृष्टिगोचर होता नहीं अतः बौद्धमतवालों ने द्रव्य को सर्वथा अनित्य मान लिया । पर्याय व्यवहारनय का विषय है, और द्रव्य निश्चयनय का विषय है । अतः बौद्धों ने व्यवहारनय को सत्यार्थ और निश्चयनय को असत्यार्थ मान लिया। सांख्य ने व्यवहारनय को असत्यार्थ मान और निश्चयनय को सत्यार्थ मान द्रव्य को सर्वथा नित्य मान लिया । यदि वे दोनों नयों के विषयों को अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्यार्थ मानकर द्रव्य को नित्य भी है प्रनित्य भी है ऐसा स्वीकार कर लेते तो यथार्थ वस्तुस्वरूप समझ में श्राजाता ।
वर्तमान में एक नवीनमत चला है जो एकान्तनियति का प्रचार कर रहा है । ' पर्यायें सर्वथा नियत हैं अनियत नहीं हैं' यह अनेकान्त है । इसप्रकार अनेकान्त का विपरीतस्वरूप बतलाकर दिगम्बर जैन समाज को कुमार्ग अर्थात् एकान्तमिथ्यात्व में ले जा रहा है । इस नवीनमत में “पर्यायें नियत भी हैं अनियत भी हैं ।" इस यथार्थ अनेकान्त को भ्रम बतलाया जाता है । सर्वज्ञवाणी के अनुसार श्री गौतमगणधर ने द्वादशांग की रचना की
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