Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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और प्रागभाव-प्रध्वंसाभावरूप से जानते हैं, अन्यथा नहीं जानते क्योंकि वे सम्यग्ज्ञानी हैं, और न मन्यथा उपदेश दिया है, क्योंकि वे वीतराग-सर्वज्ञ हैं।
सर्व आचार्यों ने केवलज्ञानी को त्रिकालज्ञ कहा है, किन्तु किसी भी आचार्य ने उनको अन्यथा ज्ञाता या अन्यथावादी नहीं कहा है ।
असत्, अविद्यमान, प्रागभाव, प्रध्वंसाभावरूप पर्यायों को उसीरूप से जानने में सर्वज्ञता को हानि भी नहीं होती है। जैसे कि असंख्यात को असंख्यातरूप और अनन्त को अनन्तरूप जानने में सर्वज्ञता की हानि नहीं होती, क्योंकि सर्वज्ञ अन्यथा ज्ञाता नहीं हैं। वे तो यथार्थ ज्ञाता हैं।
यथाअनन्तमनन्तात्मनोपलभमानस्य न सर्वज्ञत्वं हीयते तथा असंख्येयमसंख्येयात्मनाऽवबुध्यमानस्य नास्ति सर्वज्ञत्वहानिः । न हि अन्यथाऽवस्थितमर्थमन्यथा वेत्ति सर्वज्ञो यथार्थज्ञत्वात् ।" [ राजवातिक ] इसका भाव ऊपर मा चुका है।
-जं. ग. 6-3-75/ | भास्वसभा मनःपर्यय ज्ञानो भूत भविष्य को कैसे जानता है ? शंका-क्या मनःपर्ययज्ञानी जो कि हमारे ८-९ भव जानता है तथा उन आठ भवों में एक भव यदि लोकान्तस्य निगोद का है तो क्या उस भव को मनः पयंयज्ञानी नहीं जानता? यदि नहीं तो जघन्य से ८-९ भव विपलमति मनःपर्ययज्ञानी जानता है, यह बात गलत ठहरती है। तथा 'हाँ' कहा जाता है तो "विचार्यमाण पदार्थ मनःपर्यय को प्रभा से अवष्टब्ध क्षेत्र के भीतर हो तो जाना जायगा" (धवला १३।३४४ ) यह उपदेश गलत ठहरता है। कृपया स्पष्ट करें।
समाधान-मनःपर्ययज्ञानी ७-८ भव जानता है इसके द्वारा काल का ज्ञान कराया गया है। इतने काल के अन्दर वर्तन करने वाले द्रव्यों को जानता है। जिनका प्रागभाव या प्रध्वंसाभाव है उन प्रभावात्मक भवों को मनःपर्ययज्ञानी कैसे जान सकता है ? वर्तमान पर्याय का ही द्रव्य के साथ तादात्म्यसम्बन्ध है न कि भूत या भावी पर्यायों का। वर्तमानपर्याय में जो भूतपर्यायें या भावीपर्याय शक्तिरूप से विद्यमान हैं वे पर्याय शक्तिरूप से जानी जा सकती हैं । श्रतज्ञान सविकल्प है अतः वह नैगमनय से निमित्तज्ञानादि द्वारा असत् पर्यायों को भी जान लेता है। जैसे-एक बीज है, यदि उसे उत्तमभूमि में बो दिया जावे तो उत्तम फल लगेगा और जघन्यभूमि में बो दिया जाए
। अत: उस बीज की पर्याय निमित्ताघोन होने के कारण अनिश्चित है उसको मन:पर्ययज्ञानी
गाथा का शब्दार्थ भिन्नप्रकार का होता है और परमार्थ भिन्न प्रकार का होता है। धवल पुस्तक ७ में चक्षुदर्शन के प्रकरण में यह स्पष्ट किया है।
-पत्र 1-3-80/ /ज. ला. ज'न, भीण्डर
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