Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२६५
हे जिन ! आपके मत में प्रमाण और नय से सिद्ध होता हुआ अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है, क्योंकि प्रमाण की अपेक्षा वह अनेकान्तरूप है और अर्पितनय की अपेक्षा एकान्तरूप है ।
सम्यगनेकान्त, सम्यगेकान्त, मिथ्या-अनेकान्त, मिथ्या-एकान्त के भेद से वचन चार प्रकार के होते हैं। जो वचन अन्यधर्मों व अन्यनयों से निरपेक्ष होते हैं वे मिथ्या हैं और जो सापेक्ष होते हैं वे सम्यक हैं। श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा भी है---
"निरपेक्षा नया मिथ्यासापेक्षा वास्तु तेऽर्थकृत् ।" जो नय निरपेक्ष ( प्रतिपक्षी धर्म के सर्वथा निराकरणरूप ) होते हैं वे ही मिथ्यानय ( दुर्नय ) होते हैं। सापेक्षनय ( जो कि प्रतिपक्षीधर्म की उपेक्षा अथवा उसे गौण किये होते हैं ) मिथ्या न होकर सम्यक्नय होते हैं, उनके विषय अर्थ-क्रियाकारी होते हैं, इसलिये उनके समूह के वस्तुपना सुघटित है।
मिच्छादिट्ठी सव्वे वि गया सपक्खपडिबद्धा।
अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंति सम्मत्तसम्भावं ।। केवल अपने-अपने पक्षसे प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं; परन्तु यदि ये सभी नय परस्पर सापेक्ष हों तो समीचीन पने को प्राप्त होते हैं अर्थात सम्यग्दृष्टि होते हैं।
___'जैसे पिता ही है' यह वचन मिथ्या है, क्योंकि यह वचन निरपेक्ष होने से इसमें अन्य धर्मों का निराकरण है । यदि यह कहा जावे कि 'पुत्र की अपेक्षा पिता ही है' यह वचन सम्यक है, क्योंकि यह कथन पुत्र की सापेक्षता लिए हुए है। इसलिए वही मनुष्य अपने पिता की अपेक्षा पुत्र भी है यह बात अनर्पित अर्थात् गौण है।
'पिता भी है' यह वचन सम्यगनेकान्त है, क्योंकि 'भी' शब्द से पिता के अतिरिक्त अन्य समस्त धर्मों का ग्रहण हो जाता है । 'पुत्र की अपेक्षा पिता भी है' यह मिथ्याअनेकान्त है, क्योंकि पुत्र की अपेक्षा 'पिता' धर्म के अतिरिक्त अन्यधर्म संभव नहीं है और 'भी' शब्द अन्यधर्मों का द्योतक है।
इसप्रकार प्रमाण, दुःप्रमारण, नय, दुर्न य वाक्यों को जानकर सम्यगनेकान्त और सम्यक्नय वाक्यों का प्रयोग होना चाहिये ।
-जं. ग. 26-10-72/VII रो. ला. मि. स्याद्वाद व अनेकान्त में अन्तर शंका-स्याद्वाद और अनेकान्त में क्या अन्तर है ? नय की अपेक्षा दोनों रखते हैं ?
समाधान-'अनेकान्त' का अर्थ है 'अनेक' बहत अनन्त । 'अन्त' का अर्थ 'धर्म' है। जिसमें बहुत से विरोधी धर्म हों उसको 'अनेकान्त' कहते हैं । 'स्याद्वाद'-'स्यात' का अर्थ 'कथंचित' 'किसी अपेक्षा से'। 'वाह का अर्थ 'कहना' । 'स्याद्वाद' का अर्थ हो गया कथंचित् अथवा किसी अपेक्षा से कहना। यद्यपि नय की अपेक्षा से स्याद्राद और अनेकान्त दोनों हैं, किन्तु 'अनेकान्त' वस्तुस्वभाव को द्योतन करता है और 'स्याद्वाद' इन अनेक धर्मों में से किसी एकधर्म के कहने के ढंग को बतलाता है। 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूप से बताता है कि वस्तु केवल इस धर्मवाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक्त अन्य भी धर्म हैं । इसप्रकार स्याद्वाद और अनेकान्त में अंतर है । अनन्तधर्मात्मक वस्तु का निर्दुष्टरूप से कथन करनेवाली भाषा स्याद्वादरूप होती है।
-जं. स. 20-11-58/V/ कपूरीदेवी, गया
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