Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२७० ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उत्तर-नहीं, क्योंकि अनादिकालीन बन्धन से बद्ध रहने के कारण जीव के संसारावस्था में अमूर्तत्व का अभाव है।
"द्वयोमर्तयोः संघटने विरोधाभावाच्च ।" [ ध. पु. १ पृ. २३४ ] अर्थ-दो मूर्त पदार्थ ( जीव और पुद्गल ) के सम्बन्ध होने में कोई विरोध भी नहीं पाता है ।
यदि संसारी जीव का मूर्तपना सर्वथा अयथार्थ माना जाय तो मदिरा आदि के सेवन करने पर ज्ञान में मूर्छा नहीं होनी चाहिए थी, किन्तु ज्ञान में मूर्छा देखी जाती है। इससे सिद्ध होता है कि संसारी प्रात्मा मूर्तिक है । [ तत्त्वार्थसार ]
"अमुत्तो जीवो कधं मणपज्जवणारण मुत्तट्ठपरिच्छेदियोहिणाणादो हेट्ठिमण परिच्छिज्जदे ? ण, मुत्तट्ठकम्मेहि अणादिबंधबद्धम्स अमुत्तत्ताणु ववत्तीदो।"
शंका-क्योंकि जीव अमूर्त है, अतः वह मूर्त अर्थ को जाननेवाले अवधिज्ञान से नीचे के मनःपर्ययज्ञान के द्वारा कैसे जाना जा सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि संसारीजीव आठ मूर्तकर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धन से बद्ध है, इसलिये वह अमूर्त नहीं हो सकता । कहा भी है
जीवाजीवं दवं रूवारूवि त्ति होदि पत्तेयं ।
संसारत्था रूवा कम्मविमुक्का अरूवगया ॥ [ गो. जी. ५६३ ] अर्थ-द्रव्य सामान्य के दो भेद हैं। एक जीवद्रव्य, दूसरा अजीवद्रव्य । इनमें से प्रत्येक दो-दो प्रकार का है---रूपी तथा अरूपी । वहाँ संसारी जीव रूपी हैं और कर्म से मुक्त सिद्धजीव अरूपी हैं।
इसी कथन को देवसेनाचार्य ने इसप्रकार किया है
मूर्तस्यै कान्तेनात्मनो न मोक्षस्यावाप्तिः स्यात् । सर्वथाऽमूर्तस्यापि तथात्मनः संसारविलोपः स्यात् ।
अर्थ—एकान्त से प्रात्मा को मूर्तिक मानने पर मोक्ष का अभाव हो जायगा। ( इसीप्रकार ) प्रात्मा को सर्वथा अमूर्त मानने पर प्रात्मा के संसार का लोप हो जायगा। अतः मूर्त-अमूर्त के इस अनेकान्त में किसी एक को अयथार्थ कहना एकान्तमिथ्यात्व है।
-. ग. 8-7-65/1X/............ प्रात्मा कथंचित् मूर्तिक है - शंका-मोक्षमार्गप्रकाशक दूसरा अधिकार पृ० ३५ पर इसप्रकार लिखा है-"जो मूर्तीक-मूर्तीक का तो बन्धान होना बने, अमूर्तीक मूर्तीक का बन्धान कैसे बने ? ताका समाधान-जैसे इन्द्रियगम्य नहीं ऐसे सूक्ष्म पुदगल और व्यक्त इन्द्रियगम्य हैं ऐसे स्थूल पुद्गल, तिसका बन्धान होना मानिये है । तैसे इन्द्रियगम्य होने योग्य नाहीं ऐसा अमूर्तीक आत्मा और इन्द्रियगम्य होने योग्य मूर्तीक कर्म इनका बन्ध मानना।" इसपर यह शंका है कि दृष्टान्त मूर्तिक-मूर्तिक का दिया गया है इससे मूर्तिक और अमूर्तिक का बन्ध कैसे सिद्ध होवे ? क्या मूर्तिककर्म इन्द्रियगम्य हैं ?
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