Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२६९
"आत्मनोऽनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः पुद्गलास्पृश्यमास्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् ।" [ स. सा. गा. १४ आ. ख्या. ]
अर्थ-आत्मा के अनादि पुद्गल कर्म से बद्धस्पृष्टपने की अवस्थारूप से अनुभव किये जाने पर बद्धस्पृष्टपना भूतार्थ है, सत्यार्थ है-यथार्थ है । पुद्गल के स्पर्शन योग्य नहीं ऐसे आत्मस्वभाव को लेकर अनुभव किये जाने पर बद्धस्पृष्टपना असत्यार्थ ( अयथार्थ ) है।
जीव के मूर्तत्व और अमूर्तत्व के विषय में भी इसीप्रकार जानना चाहिए। आत्मा के अनादि पुद्गलकर्म से बद्धस्पृष्टपने की अवस्था से अनुभव किये जाने पर मूर्तपना भूतार्थ है, सत्यार्थ है-यथार्थ है। आत्मस्वभाव को लेकर अनुभव किये जाने पर मूर्तपना असत्यार्थ है-अयथार्थ है। इसलिए प्रात्मा के मूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है । कहा भी है
........कर्मबन्धापेक्षया हि ते भावाः । न चामूर्तेः कर्मणां बन्धो युज्यते इति ? तन्न, अनेकान्तात् । नायमेकान्तः अमूतिरेवात्मेति । कर्मबन्धपर्यायापेक्षया तदावेशात् स्यान्मूर्तः। यद्येवं कर्मबन्धावेशादस्यकत्वे सत्यविवेक प्राप्नोति ? नैष दोषः, बन्धं प्रत्येकस्वे सत्यपि लक्षणभेदादस्य नानात्वमवसीयते । उक्त च
बंधं पडि एयत्त लक्खणदो हवइ तस्स णाणत्तं ।
तम्हा अमुत्तिभावोऽयंतो होई जीवस्स ॥ स. सि. २७ । अर्थ-प्रश्न-प्रौपशमिकादि पाँच भाव नहीं बन सकते, क्योंकि आत्मा अमूर्त है। ये औपशमिकादिभाव कर्मबन्ध की अपेक्षा होते हैं, परन्तु अमूर्तश्रात्मा के कर्मों का बन्ध नहीं बनता है ?
उत्तर-प्रात्मा के विषय में अनेकान्त है । यह कोई एकान्त नहीं कि आत्मा अमूर्त ही है। कर्मबन्धरूप पर्याय की अपेक्षा उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्धस्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है।
प्रश्न-यदि ऐसा है तो कर्मबन्ध के आवेश से प्रात्मा का ऐक्य हो जाने पर प्रात्मा का उससे भेद नहीं रहता।
उत्तर--यह कोई दोष नहीं । यद्यपि बन्ध की अपेक्षा अभेद है, तो भी लक्षण के भेद से कर्म और प्रात्मा का भेद जाना जाता है।
गाथार्थ आत्मा बंध की अपेक्षा एक है तथापि लक्षण की अपेक्षा वह भिन्न है। इसलिए जीव का अमूर्तिकभाव अनेकान्तरूप है । वह एक अपेक्षा से है और एक अपेक्षा से नहीं है। "कम्मसंबंधवसेण पोग्गलभावमुवगय जीवाजीवदव्वाणं च पच्चक्खेण परिच्छित्ति कुणइ ओहिणाणं ।
[ ज.ध. पु. १ पृ. ४३ ] अर्थ-कर्म के सम्बन्ध से पुद्गलभाव को प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्षरूप से जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं।
"कधं मुत्ताणं कम्माणममुत्तेण जीवेण सह संबंधो ? ण, अणादिबंधणबद्धस्स जीवस्स संसारावत्थाए अमुत्तत्ताभावादो।" [ धवल १५॥३२ ]
प्रश्न-मूर्त कर्मों का अमूर्तजीव के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?
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