Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
१. कथंचित् अग्नि पानी को गर्म करती है, कथंचित नहीं। २. कथंचित् कुन्दकुन्द समयसार के कर्ता हैं, कथंचित् नहीं। ३. कथंचित् एक द्रव्य की क्रिया दूसरा द्रव्य करता है।
शंका-अग्नि पानी को गर्म नहीं करती, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की क्रिया को नहीं करता?
समाधान-अग्नि पानी को गर्म नहीं करती ऐसा एकान्त नहीं है, क्योंकि एकग्राम पानी को एकडिग्री सेन्टीग्रेड गर्म करने के लिये एक कलरी तापमान की आवश्यकता होती है। यह एक कलरी तापमान जल में तो है नहीं। इसके लिये इसको तो अग्नि आदि उष्णपदार्थों की आवश्यकता होगी। अग्नि आदि उष्णपदार्थों के बिना जल स्वयं गर्म नहीं हो सकता । अतः अग्नि पानी को गर्म करती है इसमें कोई बाधा भी नहीं है। यह व्यवहारनय का विषय है, क्योंकि 'उष्ण' जल की पर्याय है और पर्याय व्यवहारनय का विषय है।
श्री जिनेन्द्र भगवान दिव्यध्वनि के कर्ता हैं और श्री कुन्दकुन्दाचार्य समयसार प्रादि ग्रन्थ के कर्ता हैं अन्यथा इनमें प्रमाणता का अभाव हो जायगा। इस पर भी यदि किसी को शंका हो तो मदिरापान करके देख लेते कि मदिरा उसको उन्मत्त करती है या नहीं। इसप्रकार एक द्रव्य की क्रिया को दूसरा द्रव्य करता है, किन्त उपादानरूप से एकद्रव्य दुसरे द्रव्य की क्रिया को नहीं करता, क्योंकि एकद्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो जाता।
-ज.ग. 12-12-66/VII/ ज. प्र. म. कु.
कथंचित् असत् का उत्पाद व सत् का विनाश शंका-असत् का कभी उत्पाद नहीं होता और सत् का कभी विनाश नहीं होता। यह सिद्धांत किस अपेक्षा से है ?
समाधान-असतद्रव्य का कभी उत्पाद नहीं होता और सतद्रव्य का कभी विनाश नहीं होता है, क्योंकि व्य अनादिअनन्त है किन्त पर्यायें उत्पन्न भी होती हैं और नष्ट भी होती हैं, अतः पर्याय की अपेक्षा असत का उत्पाद और सत का विनाश भी होता है । द्रव्य और पर्याय की सापेक्षता से इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है ? श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होइ उप्पादो।
इदि जिणवरेहि भणिदं अण्णोण्णविरुद्धमविरुद्ध। इसप्रकार पर्यायदृष्टि से जीव के सत् का विनाश और असत् का उत्पाद होता है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। यद्यपि यह कथन द्रव्यदृष्टि ( सत् का नाश नहीं; असत् का उत्पाद नहीं ) के विरुद्ध है, तथापि सापेक्षता में यह कथन विरुद्ध भी नहीं है।
इसप्रकार असत् का उत्पाद नहीं होता और सत् का नाश नहीं होता, ऐसा एकान्त नहीं है। अपनी-अपनी अपेक्षा से दोनों कथन सत्य हैं । 'सांख्य' यह मानते हैं कि असत् का उत्पाद नहीं होता और सत् का नाश नहीं होता है, इसलिये वे द्रव्य को कूटस्थ नित्य मानते हैं, किन्तु अनेकान्तवादी जैन तो द्रव्य नित्यानित्यात्मक मानते हैं।
-ज.ग. 14-2-66/IX/र. ला. जैन
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