Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२५९
'नियति' निरपेक्ष सर्वथा 'नियति' एकान्तमिथ्यात्व है, किन्तु सर्वथानियति न मानकर यदि 'स्यात् नियति' 'स्यात्अनियति' माना जावे तो 'नियति' अपने विरोधी 'नियति' की सापेक्षता के कारण 'सम्यक्नियति' है ।
यदि 'नियति' के विरोधी धर्म 'नियति' को तो स्वीकार न करें, किन्तु नियति के साथ 'कालनय' 'ईश्वरनय' 'स्वभावनय' आदि अनेक नयों को स्वीकार करें तो भी मिथ्याएकान्त का दूषण दूर नहीं होगा, क्योंकि एक ही पदार्थ में दो विरुद्धधर्मो को स्वीकार करना अनेकान्त है न कि अनेकधर्मों को स्वीकार करना अनेकान्त है । इसीप्रकार 'नियति' भी यदि 'नियति' से निरपेक्ष है तो वह भी मिथ्याएकान्त है । इसीप्रकार 'कालनय' 'अकालनय' 'ईश्वरनय' 'अनीश्वरनय' 'स्वभावनय' 'अस्वभावनय' 'पुरुषार्थ नय' 'देवनय' प्रादि परस्पर विरुद्ध दो नयों को सापेक्षता की दृष्टि में सम्यक् कहे हैं और निरपेक्षता की दृष्टि में मिथ्याएकांत कहा है । उपर्युक्त परस्परविरुद्ध दो नयों का कथन प्रवचनसार परिशिष्ट में है; वहाँ से जान लेना । जैनसिद्धान्त का मूल तत्त्व सम्यगनेकान्त है, उसको 'नियतिनिरपेक्ष प्रनियति इत्यादि' से तो बाधा प्राती है, किन्तु 'नियतिसापेक्ष प्रनियति' से बाधा नहीं होती, अपितु पुष्टि होती है ।
- जं. ग. 6-12-6 / V/ डी. एल. श्रास्ती
(१) प्रनेकान्त का स्वरूप व सप्त भंगी
(२) सम्यगेकान्त व मिथ्यैकान्त का स्वरूप
(३) दो और दो चार होते हैं; सर्वथा ऐसा कहना भूल है
शंका - वस्तु को अर्थात् द्रव्य को 'नित्य और अनित्य' ऐसा कहा जाता है, किन्तु इन दोनों में एक ही सत्य होगा, और अन्य केवल आरोप मात्र होगा, जो असत्य होगा। इन दोनों में 'नित्य' सत्य है, क्योंकि द्रव्याथिक अर्थात् निश्चयनय का विषय है। 'अनित्य' कहना असत्य है, क्योंकि पर्यायार्थिक अर्थात् व्यवहारनय का विषय है । समयसार में भी निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थं कहा है । जैसे दो और दो ४ ही होते हैं, '५' या अन्य संख्यारूप नहीं होते, क्योंकि किसी भी प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर एक ही होता है, दो नहीं होते; इसीप्रकार वस्तुस्वरूप क्या है इसका ठीक-ठीक उत्तर एक यही होगा कि 'वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं है' । 'नित्य भी है', 'अनित्य भी है' ऐसे दो उत्तर ठीक-ठीक नहीं हो सकते, यह तो संदेहात्मक उत्तर है। यदि यह कहा जावे कि इस उत्तर से ( वस्तु नित्य ही है, अनित्य नहीं है ) एकांत मिथ्यात्व का पोषण होता है और अनेकान्त का खंडन होता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि 'नित्य है' इससे 'अस्ति' धर्म को स्वीकार किया गया है, 'अनित्य नहीं' इससे 'नास्ति' धर्म को स्वीकार करने से अस्तिनास्तिरूप अनेकान्त को स्वीकार किया गया अथवा 'वस्तुस्वरूप नित्य ही है' यह सम्यगेकान्त है । यदि सम्यगेकान्त को स्वीकार न किया जावेगा तो 'वस्तुस्वरूप अनेकान्तात्मक ही है ऐसा एकान्त आ जायगा ।
समाधान - शंकाकार ने इस शंका में मात्र अपनी एक मान्यता रक्खी है जिसको युक्ति व दृष्टान्त के बल पर सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया है किन्तु 'ग्रनेकान्त' तथा 'सम्यगेकान्त' का यथार्थस्वरूप न समझने के कारण आपकी ऐसी एक भ्रमात्मक मान्यता होगई है ।
श्री समयसार ग्रन्थ के स्याद्वादाधिकार में कहा है - " स्याद्वाद सब वस्तु के साधनेवाला एक निर्बाध अर्हत्सर्वज्ञ का शासन है, वह स्याद्वाद सब वस्तुओं को अनेकांतात्मक कहता है, क्योंकि सभी पदार्थों का अनेकधर्मरूप स्वभाव है । वस्तु को ज्ञानमात्रपने अनेकांत का ऐसा स्वरूप है कि 'जो वस्तु सत्स्वरूप है, वही वस्तु असत्स्व
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