Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
कषाय नहीं बन सकते हैं तथा योग और कषाय के न मानने पर वस्तु सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य नहीं बन सकती है। इसलिये केवल अपने-अपने पक्ष से प्रतिबद्ध ये सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं । परन्तु यदि ये सभी नय परस्पर सापेक्ष हों तो समीचीनपने को प्राप्त होते हैं।
शास्त्रीजी ने जो, 'वस्तु नित्य है, अनित्य नहीं है' ऐसा अनेकान्त बनाया वह तो 'नित्य' एकान्त है। शास्त्रीजी ने तो 'अनित्य' का निषेध किया है। 'अनित्य' की स्वीकारता किये बिना अनेकान्त का स्वरूप नहीं बन सकता। जिस प्रकार 'अस्ति' वस्तु का धर्म है उसी प्रकार 'नित्य' भी वस्तु का धर्म है। 'अस्ति' का प्रतिपक्षी 'नास्ति' धर्म भी अस्ति के साथ वस्तु में पाया जाता है। उसी प्रकार 'नित्य' के प्रतिपक्षी 'अनित्य' धर्म का वस्तु में होना अवश्यंभावी है । 'वस्तु नित्यानित्यात्मक है अथवा द्रव्याथिकनय से वस्तु नित्य है और पर्यायाथिकनय से वस्तु अनित्य है', यह अनेकान्त है। यदि भिन्न-भिन्ननयों की अपेक्षा के बिना वस्तु को नित्य भी और अनित्य भी कहा जाता तो सम्यगनेकान्त न रहकर संशय की कोटि में प्राजाता। भिन्न-भिन्ननयों की अपेक्षा वस्तु ऐसी भी है
और ऐसी भी है; कहने में कोई बाधा नहीं। जैसे एक ही देवदत्त-नामक पुरुष अपने पुत्र यज्ञदत्त की अपेक्षा पिता है और अपने पिता रामदत्त की अपेक्षा पुत्र है । अतः यज्ञदत्तनामक पुरुष पिता भी है और पुत्र भी है, ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं है। जो ज्ञानी हैं वे तो यथार्थ समझ जाते हैं, किन्तु जो अज्ञानी हैं उनको तो 'अनेकान्त' संशय रूप दिखलाई देता है।
गोम्मटसारकर्मकाण्ड में गाथा ६७६ से गाथा ८८९ तक इन १४ गाथाओं में ग्रहीतमिथ्यात्व के ३६३ भेदों का कथन है। उन मिथ्यादृष्टियों की जीव आदि नवपदार्थों अथवा जीवादि साततत्त्वों में से प्रत्येक के विषय में किस-किसप्रकार एकान्त मान्यता है तथा अस्ति-नास्ति आदि सातभंग में से प्रत्येक के विषय में किसप्रकार की अज्ञानता है तथा देव-राजा आदि के सम्बन्ध में किसप्रकार वनयिक-मिथ्यात्व है; इन सबका कथन है। गाथा ८९० एकान्तपौरुषवाद, गाथा ८९१ में एकान्तदैववाद, गाथा ८९२ में एकान्तसंयोगवाद और गाथा ८९३ में एकान्तलोकवाद का कथन है।
यदि शास्त्रीजी ने या मेरे परम मित्र श्री ब्र. जिनेन्द्र कुमार पानीपत ने ध्यानपूर्वक गोम्मटसार कर्मकाण्ड के उक्त प्रकरण को पढ़कर समझने का प्रयत्न किया होता तो वे कभी यह लिखने का साहस न करते कि गोम्मटमार में 'नवपदार्थ', 'सप्ततत्त्व', 'सप्तभंग' को मिथ्यात्व कहा है। श्री १०८ नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती महान प्राचार्य के सम्बन्ध में हम जैसे तुच्छ प्राणियों को इसप्रकार के शब्दों का प्रयोग शोभा नहीं देता।
गोम्मटसारकर्मकाण्ड गाथा ८७७ में जीवादि नवपदार्थों में प्रत्येक पदार्थ के अस्तित्व के सम्बन्ध में 'कालवाद' 'ईश्वरवाद', 'आत्मवाद', 'नियतिवाद' 'स्वभाववाद' इन पाँचों वादों में से प्रत्येक वादवाले 'स्वत:' 'परतः' 'नित्यपने' 'अनित्यपने से एकान्त मिथ्याकल्पना करते हैं। इसका कथन है। क्या इस गाथा में नवपदार्थों को मिथ्या कहा है या नवपदार्थों के अस्तित्व के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न १८० एकान्त मान्यताओं को मिथ्या कहा है।
इन पाँचवादों में से एकवाद 'नियतिवाद' भी है जिसका स्वरूप गाथा ८८२ में कहा है। इस 'नियतिबाद। जिसको वर्तमान में 'क्रमबद्ध पर्याय' से कहा जाता है ) को भी एकान्तमिथ्यात्व कहा है। एकान्तमिथ्यात्व कहने का अभिप्राय यह है कि वह 'नियतिवाद' अपने प्रतिपक्षी विरोधी 'अनियतिवाद' की अपेक्षा नहीं रखता।
१. तम्हा मित्छादिद्वी सध्ये वि णया सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिया उण लहंतिसम्मत्तसम्भावं ।।
(ज.ध.पु.१ पृ. २४
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