Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
जो गुरुपरम्परा से चला धारहा है, जिसका पहिले का वाच्य वाचक भाव अभी तक नष्ट नहीं हुआ है और जो दोषावरण से रहित तथा निष्प्रतिपक्ष सत्य स्वभाववाले पुरुष के द्वारा व्याख्यान होने से श्रद्धा के योग्य है ऐसे आगम की भाज भी उपलब्धि होती है। प्रमाणता को प्राप्त आचायों के द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है, इसलिये उपलब्ध धागम प्रमाण है। (धवल १ पृ० १६६-१९७ ) अतः हमको आगम पर श्रद्धान कर अपना कल्याण करना चाहिये। साधु पुरुषों की चक्षु आगम है ( प्रवचनसार गाथा २३४ ) पोर वह भागम 'स्यात्' शब्दरूपी अमृत से गर्भित होना चाहिये ।
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'द्रव्य नित्य भी है, प्रनित्य भी है, सादि भी है, अनादि भी है, अनन्त भी है, सान्त भी है, नियत भी है, नियत भी है, काल भी है, अकाल भी है ।' इत्यादि अनेकान्तरूप से श्रागम में कहा है। मात्र एकान्त 'नियति' या 'काल' आदि का किसी भी दि० जैनागम में उपदेश नहीं पाया जाता। प्रत हमको आगम वाक्यों पर श्रद्धान करना चाहिये ।
शंका- किसी मनुष्य ने व्रत ग्रहण किये। उनमें अतिचार लगने पर वह विचार करता है कि 'केवलज्ञानी ने मेरी ऐसी पर्याय देखी थी अतः अन्यथा हो नहीं सकती थी ।' यह विचार कर अतिचार या अनाचार के विषय में आलोचना या प्रतिक्रमण नहीं करता । इसीप्रकार दूसरों के विषय में विचारकर वह दूसरों का स्थितिकरण भी नहीं करता। यदि कोई उस मनुष्य से आलोचना, प्रतिक्रमण या स्थितिकरण की बात भी करता है तो वह मनुष्य उत्तर देता है कि 'तुम सर्वज्ञ को नहीं मानते, अतः ऐसी बातें करते हो ।' क्या उस मनुष्य का आलोचन-प्रतिक्रमण तथा स्थितिकरण न करना उचित है ?
समाधान - जो सर्वज्ञज्ञान के प्राधार पर नियति-निरपेक्ष सर्वथा एकान्त-नियतिवाद ( क्रमबद्धपर्याय ) को मानते हैं वे ही उपरोक्त विचार कर आलोचन प्रतिक्रमण तथा स्थितिकरण मादि नहीं करते, किन्तु अनेकान्तवादी सम्यग्डष्टि तो उस समय अनियंतिनय के अनुसार उन कारणों की खोज करता है जिनकारणों से स्वयं को या पर को अतिचार आदि लगे हैं। आलोचन प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान के द्वारा तथा उपदेशादि के द्वारा निज और पर का स्थितिकरण करता है। 'स्थितिकरण' सम्यग्दर्शन का भङ्ग है। अनियति सापेक्ष नियतिनय के द्वारा कथन सम्ययेकान्त है अनियति निरपेक्ष नियतिनय मिध्याएकान्त है जो अनेकान्त को मानता है वह केवलज्ञान को माननेवाला है, क्योंकि केवली ने अनेकान्त के उपदेश के द्वारा एकान्त का खण्डन किया है ।
- जै. ग. 26-12-63 / 1X / प्रेमचन्द
कार्तिकेयानुप्रक्षा की ३२१-२२-२३ वीं गाथाओंों का खुलासा
शंका- स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाया ३२१ व ३२२ को मिलाकर भी पं० जयचभ्यजी ने इकट्ठा अर्थ किया है और गाथा ३२३ में लिखा है कि जो यह नहीं मानता कि जैसा जिनेन्द्रदेव ने देखा है वंसा ही होगा, ऐसा नियत है वह मिध्यादृष्टि है। फिर आजकल गाथा ३२१-३२३ को मिलाकर अर्थ क्यों नहीं किया जाता है ? क्या ३२३ गाथा का ३२१ व ३२२ से सम्बन्ध नहीं है ? क्या गाथा ३२१ व ३२२ में सर्वज्ञ का लक्षण नहीं है ? यदि गाथा ३२१ व ३२२ का सम्बन्ध गाथा ३२३ से नहीं है तो किन गाथाओं से सम्बन्ध है ?
समाधान- श्री पं० जयचन्दजी छाबड़ा ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाया ३२१, ३२२ अर्थ नहीं किया है | गाथा ३२१ व ३२२ को मिलाकर अथं किया है और ३२३ का पृथक् श्रर्थं
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व ३२३ का इकट्ठा किया है | गाथा
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