Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
[ १२४७
सम्वाण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती। कालाई लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दवम्मि ॥२४४ ॥
संस्कृत टीका-सर्वेषां पर्यायाणां नरनारकादिपुद्गलादीनां द्रव्ये जीवादिवस्तुनि । किभूते ? अनादिनिधने अविनश्वरे पदार्थे कालादिलब्ध्या द्रव्य क्षेत्रकालभवभावलाभेन उत्पत्तिभवति उत्पाद: स्यात् । कि भूतानाम् ? अविद्यमानानाम् असतां द्रव्ये पर्यायाणामुत्पत्तिः स्यात् । यथा विद्यमाने मृद्रव्ये घटोत्पत्त्युचितकाले कुम्भकारादौ सत्येव घटादयः पर्याया जायन्ते तथा ॥ २४४ ॥
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपर्युक्त दो गाथाओं तथा उन पर संस्कृत टीका के द्वारा यह बतलाया गया है कि जैसे वस्त्र से ढका हुआ देवदत्त अथवा पर्दे के पीछे बैठा हुआ देवदत्त वस्त्र या पर्दे के हटते ही प्रकट हो जाता है यदि उसीप्रकार द्रव्य में पर्याय विद्यमान होते हुए भी ढकी हुई हैं तो उत्पाद अर्थात् पर्याय की उत्पत्ति निष्फल है, क्योंकि पर्दे के पीछे जिसप्रकार देवदत्त पहिले से ही विद्यमान था, इसीतरह सांख्यमतानुसार यदि द्रव्य में पर्याय पहले से ही विद्यमान है और पीछे प्रकट हो जाती है तो उसकी उत्पत्ति कहना उचित नहीं है। उत्पत्ति तो अविद्यमान की ही होती है। अतः प्रविनश्वर अनादिनिधन द्रव्य में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव और भाव के मिलने पर द्रव्य में अविद्यमान अर्थात् असत्पर्याय की उत्पत्ति होती है। उचित काल तथा कुम्हार आदि के द्वारा ही विद्यमान मिट्टी में असत्रूप घट आदि पर्याय की उत्पत्ति होती है। मिट्टी के पिंड घट, शिकोरा, गिलास आदि पर्यायें शक्तिरूप से हैं अर्थात् मिट्टी के पिंड में घट शिकोरा गिलासआदिरूप परिणमन करने की नानाशक्तियाँ विद्यमान हैं। वर्तमानपर्याय सहित द्रव्य और उसमें पड़ी हुई नानाशक्तियाँ ही सम्यग्ज्ञान का विषय हो सकती हैं। अविद्यमानपर्याय अर्थात् असतरूप पर्याय का विद्यमान या सत्रूपसे ग्रहण नहीं हो सकता है। जो ज्ञान अविद्यमान को विद्यमानरूपसे, असत् को सतरूपसे जानता है वह सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि जैसा पदार्थ था वैसा नहीं जाना, अन्यथा जाना है।
"सहभुवो गुणाः क्रमवतिनः पर्यायाः।" [ आलापपद्धति ]
सदा साथ में रहने वाले गुण हैं और क्रम-क्रम से होनेवाली पर्यायें हैं । पर्याय के इस लक्षण से भी स्पष्ट है कि द्रव्य में भूत और भाविपर्यायें विद्यमानरूप से या सद्भावरूप से नहीं रहती हैं। भूतपर्यायों का प्रध्वंसाभाव है और भाविपर्यायों का प्रागभाव है। इसप्रकार द्रव्य में भूत और भावि दोनों पर्यायों का अभाव है। इस वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए प्रवचनसार की गाथानों का अर्थ करना चाहिये।
तककालिगेव सब्वे सदसम्भूदा हि पज्जया तासि ।
वट्टते ते गाणे विसेसदो दम्वजादीणं ॥ ३७ ॥ [ प्रवचनसार ] उन समस्त द्रव्यों की सद्भूत और असद्भूत सर्वपर्यायें, वर्तमानपर्याय के समान, विशेषरूप से ज्ञान में वर्तती हैं।
इस गाथा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने दो प्रकार की पर्यायों का उल्लेख किया है। (१) सद्भूत अर्थात् वर्तमानपर्याय, (२) असद्भूतपर्यायें अर्थात् भूत व भाविपर्यायें । ये दोनों प्रकार की पर्यायें, वर्तमानपर्याय के समान, ज्ञान में वर्तती हैं । अर्थात् असद्भूतपर्यायों के लिये वर्तमानपर्याय की उपमा दी है। उपमा और उपमेय में एकदेश सदृशता होती है, सर्वथा सदृशता नहीं होती। यदि सर्वथा सदृशता हो जाय तो उपमा और उपमेय ऐसे दो भेद नहीं हो सकते हैं ।
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