Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व मोर कृतित्व ]
[ १२४३
सोनगढ़ का जो सर्वथा क्रमबद्धपर्याय का सिद्धांत है वह एकांतमिथ्यात्व है, क्योंकि सोनगढ़वाले क्रमअबद्धपर्याय को स्वीकार नहीं करते हैं ।
दुर्निवारनयानीक विरोधध्वंस नौषधिः । स्यात्कार जीविता जीयाज्जनो सिद्धान्तपद्धतिः ॥
'स्यात्कार' जिसका जीवन है जो नयसमूह के दुनिवार विरोध का नाश करनेवाली औषधि है ऐसी जैनी ( जिन भगवान की ) सिद्धान्तपद्धति जयवन्त हो ।
शंका- सोनगढ़ से प्रकाशित 'ज्ञान स्वभाव ज्ञेय स्वभाव' पुस्तक के पृष्ठ २८० पर लिखा है
" जिसप्रकार जीने की सीढियाँ क्रमवार होती हैं, उसीप्रकार आत्मा असंख्यप्रदेशों में फैला हुआ एक है । उसके क्षेत्र का प्रत्येक अंश सो प्रदेश है । संपूर्ण द्रव्य का अस्तित्व प्रवाहरूप से एक है । उस प्रवाह के प्रत्येकसमय का अंश सो परिणाम है। उन परिणामों का प्रवाहक्रम जीने की सीढ़ियों की तरह क्रमबद्ध है। उनका क्रम आगे पीछे नहीं होगा ।"
पृ० २९२ पर लिखा है - " द्रव्य स्वयं अपनी पर्याय को उलटा-सीधा करना चाहे तो नहीं हो सकता ।" पृ० २९४ पर लिखा है - " पूर्वपरिणाम का अभावरूप वर्तमानपरिणाम है, इसलिये पूर्व के संस्कार वर्तमान में नहीं आते और न पूर्व का विकार वर्तमान में आता है ।"
प्रश्न यह है कि प्रत्येक द्रव्य की पर्यायों का कोई नियतक्रम है जो सुनिश्चित है ? समाधान - पर्याय दो प्रकार की हैं। एक स्वपर - सापेक्ष और दूसरी निरपेक्ष ।
"पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ॥ १४ ॥ [ नियमसार ] जो पर्याय परनिरपेक्ष है वह स्वभाव पर्याय है । कहा भी है
'अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जायो ।। २८ ।" [ नियमसार ] वह स्वभावपर्याय अगुरुलघुगुण में षट्स्थानपतित हानिवृद्धि के कारण होती है । कहा भी है
अगुरुलगा अनंता, समयं समयं समुब्भवा जे वि ।
दव्वाणं ते भणिया, सहावगुणपज्जया जाण ॥ २२ ॥ [ नयचक्र
अनन्त श्रविभागप्रतिच्छेदवाले अगुरुलघुगुण में प्रतिसमय हानि या वृद्धिरूप पर्याय उत्पन्न होती रहती है । वे द्रव्य की स्वभावगुणपर्याय कही गई हैं ।
"स्वभावगुणपर्याया अगुरुलघुक गुणषट् हा निवृद्धिरूपाः सर्वद्रव्य साधारणाः । [ पं० का० गा० १६ टीका ]
गुरुलघुगुण में हानि षट्वृद्धिरूप सर्वद्रव्यों में साधारण स्वभावगुणपर्याय है ।
इस अगुरुलघुगुण में षट्हा निवृद्धि का सुनिश्चित नियतक्रम है। जैसे अंगुल के असंख्यातवें भागबार अनन्तयेंभागवृद्धि होने पर एकबार असंख्यातवें भाग वृद्धि होती है । पुनः अगुल के प्रसंख्यातवें भागवार मनन्त वें भागवृद्धि होने पर एकबार प्रसंख्यातवे भागवृद्धि होती है। इसप्रकार पुनः पुनः प्रसंख्यातवें भागवृद्धि होते हुए जब अंगुल के असंख्यातवेंभागवार असंख्यातवें भागवृद्धियां हो जाती हैं तब एकबार संख्यातवें भाग वृद्धि होती है । इत्यादि ।
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