Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२४४ )
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अगुरुलघुगुण में हानि-वृद्धि का सुनिश्चित नियतक्रम होने के कारण स्वभावपर्यायों का भी सुनिश्चित नियत क्रम है, किन्तु संसार अवस्था में कर्मपरतंत्र-जीवों में उस स्वाभाविक अगुरुलघुगुण का अभाव होने के कारण कर्मोदयकृत अगुरुलघुत्व है। अतः संसारी जीवों में स्वाभाविक अगुरुलघुगण के अभाव के कारण पर्यायों का भी सुनिश्चित नियतक्रम नहीं रहा। कहा भी है
"संसारावस्थाए कम्मपरतंतम्मि तस्साभावा।" [ धवल पु. ६ पृ० ५८ ] "अनादिकमनोकमसम्बन्धानकर्मोदयकृतागुरुलघुत्वम्, तवत्यन्तविनिवृत्तौ तु स्वभाविकमाविर्भवति ।"
[ राजवातिक म० ८ सूत्र ११ वार्तिक १२ ] जीने की सीढ़ियों का जो दृष्टान्त दिया गया है वह भी विषम है, क्योंकि जीने की सीढ़ियां सद्भावरूप हैं विद्यमान हैं, किन्तु द्रव्य में आगामी पर्यायों का अभाव है, वे अविद्यमान हैं । यदि अागामी पर्यायों का प्रागभाव (प्राक् + प्रभाव ) न माना जाय तो उनका उत्पाद सिद्ध नहीं हो सकता है । क्योंकि सद्भाव का उत्पाद नहीं होता है। कहा भी है
जदि बव्वे पज्जाया वि विज्जमाणा तिरोहिदा संति । ता उप्पत्ती विहला पडिपिहिले देववेत्ते व ॥ २४३ ।। सव्वाण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती।
कालाई लबीए अणाइ-णिहणम्मि दस्वम्मि ॥ २४४ ॥ [स्वा. का. अ.] संस्कृत टीका-"अनादिनिधने अविनश्वरे पदार्थ कालाविलब्ध्या प्रत्यक्षेत्रकालमावलाभेन उत्पत्तिर्भवति उत्पावः स्यात् । किंभूतानाम् अविद्यमानानाम् असतां द्रव्ये पर्यायाणामुत्पत्तिः स्यात्।"
यदि द्रव्य में पर्यायें विद्यमान होते हुए भी ढकी हुई हैं तो उनकी उत्पत्ति निष्फल है। जैसे वस्त्र से ढके हुए देवदत्त का वस्त्र के हट जाने पर देवदत्त का माविर्भाव तो होता है, किन्तु उत्पत्ति ( उत्पाद ) नहीं होती है, क्योंकि देवदत्त तो विद्यमान था ही । प्रतः अनादिनिधन द्रव्य में बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के मिलने पर द्रव्य में अविद्यमान असत्पर्यायों की उत्पत्ति अर्थात् उत्पाद होता है।
जीने की सीढ़ियां विद्यमान सद्रूप हैं अतः उनमें क्रमबद्धता संभव है, किन्तु जो पर्यायें अविद्यमान-असद्रूप हैं पौर जिनकी उत्पत्ति बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों के लाभ पर निर्भर है उनमें क्रमबद्धता संभव नहीं हो सकती है।
यदि कहा जाय कि ज्ञान में सर्व भागामी पर्यायें विद्यमान हैं सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो पर्याय स्वयं द्रव्य में विद्यमान सत्रूप नहीं हैं वे ज्ञान में भी विद्यमान सत्रूप नहीं हो सकती हैं, क्योंकि ज्ञान भूतार्थ का प्रकाश करनेवाला होता है।
"भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम् । अथवा सद्भावविनिश्चियोपलम्भकं ज्ञानम् ।" [धवल पु. १ पृ. १४२ व १४३]
भूतार्थ अर्थात सत्रूप अर्थ का प्रकाश करनेवाला ज्ञान होता है । अथवा सद्भाव के विनिश्चय करनेवाले धर्म को ज्ञान कहते हैं।
अन्यूनमनतिरिक्तं यथातथ्यं विना च विपरीतात । निसन्देहं वेद यवाहस्तज्ज्ञानमागमिनः ॥४२॥ [ र. क. पा. ]
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