Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
शंका - जनसन्देश में लिखा है कि श्री सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ सूत्र ७ को टीका में धर्म का लक्षण नियति कहा है। फिर अनियतिमय क्यों माना जाये ?
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समाधान - सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ सूत्र ७ में धर्म को नियति लक्षणः' कहा है वहाँ पर 'नियति' का अर्थ 'संयत' है अर्थात् धर्म का लक्षण 'संयम' है। 'निष्परिग्रह तालम्बनः' अर्थात् परिपहरहितपना उसका आलम्बन है इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि 'नियति' से संयत' ग्रहण करना चाहिये । इसका 'निश्चित' अभिप्राय लेना उचित नहीं है - प्रकरण विरुद्ध है ।
शंका- यदि कोई मात्र 'नियति' माने और अन्य कारणों को न माने तो मिथ्यादृष्टि है, किन्तु नियति के साथ अन्य कारणों को भी माने वह सम्यग्दृष्टि है। जैसे कोई यह माने कि अग्नि के संयोग से अमुकजल की अमुकसमय में उष्णपर्याय का होना नियत है वह सम्यग्दृष्टि है क्योंकि उसने अग्नि के संयोग को कारण स्वीकार किया है ।
समाधान - ऐसा कहना भी ठीक नहीं है ? विवक्षितसमय में विवक्षितजल के साथ मग्नि का संयोग होना नियत है या अनियत ? प्रथमपक्ष मानने पर तो कारण का मिलना भी नियत के आधीन ही रहा। इसलिये सब नियति के आधीन हैं ऐसा एकान्तनियतिवादमिध्यात्व श्रा गया, दूसरा पक्ष मानने पर, जब अग्नि का संयोग होना अनियत है तो विवक्षितजल की विवक्षितसमय में उष्णपर्याय कैसे नियत हो सकती है ?
एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि विवक्षितजल के साथ विवक्षितसमय में विवक्षितमग्नि का ही संयोग होगा या अविवक्षितअग्नि का ? यदि विवक्षितअग्नि का संयोग माना जावे तो कारण भी नियत होने से सब कुछ नियति के आधीन हो जाता है और एकान्तनियतिवाद का प्रसंग आ जाता है। यदि यह माना जाय कि किसी भी अग्नि का संयोग हो सकता है तो जल से अग्नि की संयोगरूप पर्याय अनियत हो गई इससे अनियतपर्याय सिद्ध हो जाती है ।
शंका- एक सज्जन मनुष्य शांत बैठा हुआ है। एक गुंडे ने आकर उस सज्जन के लाठी मारदी। वह 'डा विचार करता है कि इससमय मेरे हाथ के द्वारा इस लाठी की ऐसी पर्याय होना नियत थी तथा इस सज्जन के भी इस लाठी के द्वारा चोट लगना नियत था। मैं तो क्या इन्द्र या जिनेन्द्र भी इसको अन्यथा करने में समर्थ नहीं थे, इसलिये मेरा क्या दोष ? क्या उसका ऐसा विचार करना उचित है ? क्या यह उस गुंडे की इच्छा पर निर्भर था कि वह उस सज्जन के लाठी मारे अथवा न मारे या क्रमबद्धपर्याय के सिद्धान्तानुसार वह गुंडा लाठी मारने के लिये मजबूर था ?
समाधान- गुंडे का ऐसा विचार करना कि "लाठी, हाथ और पिटनेवाले सज्जन की इससमय अपनेअपने कारणों के द्वारा इस इसप्रकार की पर्याय होना नियत थी जिसको वह स्वयं इन्द्र या जिनेन्द्र भी टाल नहीं सकते थे," उचित नहीं है; क्योंकि यह उस गुंडे की इच्छा पर निर्भर था कि वह उस निरपराधी सज्जन को लाठी मारे अथवा न मारे । वह गुंडा क्रमबद्धपर्याय ( नियतिवाद ) अनुसार लाठी मारने के लिये बाध्य भी नहीं था ऐसा मानने से सर्वज्ञता का भी खंडन नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञ ने हिंसा आदि पाँच पापों के त्याग का स्वयं उपदेश दिया है और जिनको सर्वशवाणी पर श्रद्धा है वे एकदेश वा सर्वदेश हिंसा आदि पापों का त्याग भी करते हैं। यदि किसी कारणवश स्वयं त्याग करने में असमर्थ हैं, तो जिन्होंने हिंसा आदि पापों का त्याग किया है उनकी अनुमोदना
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