Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२४. ]
। पं० रतनचन्द जैन मुन्तार।
सम्वाण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होवि उप्पत्ती।
कालाई लद्धीए अणाइ णिहणम्मि बब्वम्मि ॥ २४४ ॥ ( स्वा० का० अ०) टोका-अविद्यमानानाम् असतां द्रव्ये पर्यायाणामुत्पत्ति स्यात् ।
सांख्यमतवाले ऐसा मानते हैं कि जीवादि द्रव्य में त्रिकालवर्ती सब पर्यायें सत् रूप विद्यमान रहती हैं, किन्तु ढकी हुई रहती हैं. जैसे सत्रूप विद्यमान देवदत्त कपड़े के पीछे ढका हुमा रहता है। इस पर प्राचार्य कहते हैं कि सांख्यमत में पर्याय की उत्पत्ति कहना निष्फल है अर्थात् सांख्य मतानुसार पर्याय का उत्पाद घटित नहीं होता है। प्रतः अनादिनिधन द्रव्य में योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव का लाभ होने पर अविद्यमान असत्पर्यायों की उत्पत्ति होती है अर्थात् उत्पाद होता है ।
सांख्यमत वाले त्रैकालिक पर्यायों को विद्यमान सत्रूप मानते हैं, किन्तु उनमें से एकपर्याय प्रकट रहती है और शेष पर्यायें तिरोहित रहती हैं। किन्तु जैनसिद्धान्त वर्तमान पर्याय के अतिरिक्त शेष पर्यायों का अभाव ( प्रध्वंसाभाव-प्रागभाव ) मानता है। पूर्व पर्याय का व्यय ( नाश ) और अविद्यमान-प्रसत् नवीन-पर्याय का (प्रध्वंसाभाव-प्रागमाला उत्पाद मानता है। यह दोनों सिद्धान्तों में अन्तर है। अतः कालिकपर्यायों को विद्यमान-सत् मानक
पतकालिकपर्यायों को विद्यमान-सत् मा सर्वथा पूर्ण मानना ठीक नहीं है।
-ज. ग. 18-11-71/VII/ अजितकुमार
"क्रमबद्धपर्याय" कोई वस्तु नहीं, पुरुषार्थ से कल्याण (मोक्ष ) सम्भव है
शंका-यह दुर्लभ मनुष्यपर्याय व जिनवाणी श्रवण इत्यादिक निमित्त पाकर भी यह प्राणी अपना कल्याण क्यों नहीं करता है ? क्या इसमें कर्मोवय कारण है या पुरुषार्थ की कमी है या अभी कल्याण की क्रमबद्धपर्याय नहीं आई?
. समाधान-'क्रमबद्ध पर्याय' तो कोई वस्तु नहीं है और न आर्ष ग्रन्थों में क्रमबद्धपर्याय का उल्लेख है, यह तो मात्र मनघडन्त है।
संज्ञी-पंचेन्द्रिय-पर्याप्तमनुष्य, इन्द्रियों को पूर्णता, ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम जिनवाणी श्रवण इत्यादिक सामग्री जिसको प्राप्त हो उसके कर्म का तीव्र उदय तो संभव नहीं है। जिस संलग्नता से धनोपार्जन के लिए निरंतर पुरुषार्थ किया जाता है, यदि उसी तत्परता के साथ आत्म-कल्याण के लिए पुरुषार्थ करे तो कल्याण हो सकता है। हम स्वयं तो आत्म-कल्याण के लिए यथार्थ पुरुषार्थ नहीं करते किन्तु काललब्धि, होनहार, क्रमबद्धपर्याय इत्यादि के भरोसे छोड़ देते हैं। बहुतों को तो ऐसी श्रद्धा बन गई है कि केवली ने हमारा आत्मकल्याण जब होना देखा है उससमय स्वयमेव हो जायगा। उसके पश्चात् करने में न हम स्वयं समर्थ हैं और न अन्य कोई समर्थ है। उपदेशक धर्मोपदेश देकर स्वयं अपना समय बरबाद करते हैं और दूसरों का बरबाद करते हैं।
तवम
जिन मनुष्यों को यथार्थ तत्त्वोपदेश उपलब्ध है और उस उपदेश को धारण करने की योग्यता ( ज्ञानाबरणकर्म का क्षयोपशम ) भी है, उन मनुष्यों का कर्मशत्रु सोया हुआ है ( कर्म का मंदोदय है ) यदि वे जिनवाणी रूपी शस्त्र का प्रयोग करें प्रर्थात् जिनवाणी के अनुसार श्रद्धान व पाचरण करें तो वे कमंत्र पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। तीववेग में नदी से पार होना यद्यपि दुःसाध्य है, किन्तु मन्दवेग में पार होना सरल है। यदि मंदवेग में
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