Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
११७४ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। "अगुरुवलहुअत्तं णाम जीवस्स साहावियमस्थि चे ण, संसारावस्थाए कम्मपरततम्मि तस्सामावा।"
धवल पु.६ पृ०५८ अगुरुलघुत्व जीव का स्वाभाविकगुण है ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि संसारावस्था में कम-परतन्त्र जीव में उस स्वाभाविक अगुरुलघुगुण का अभाव है।
"मुक्तजीवानां कमिति चेत् ? अनादिकर्मनोकर्म सम्बन्धानां कर्मोदयकृतमगुरुलघुत्वम्, तवस्यन्तविनिवृत्तौतु स्वाभाविकमाविर्भवति ।" (रा. वा. ८।११।१२)
प्रनादि कर्म-नोकर्मबद्ध जीवों के अर्थात् संसारीजीवों के कर्मोदयजनित अगुरुलघुपना है। उस कर्मोदयकृत अगुरुलघु से अत्यन्त निवृत्त हो जाने पर मुक्तजीवों के स्वाभाविकअगुरुलघुगुण का प्राविर्भाव होता है । "मुक्तजीवे षट्स्थानगतागुरुलघुकगुणवृद्धिहान्यपेक्षयाभङ्गत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ।"
(प्रवचनसार गा० १८ टीका) मुक्तजीवों में अगुरुलघुगण में षट्स्थानवृद्धि-हानि को अपेक्षा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य जानना चाहिये ऐसा सूत्र का तात्पर्य है।
तस्वार्थ सूत्र अ० १० सूत्र ४ में सिद्धों के समस्त गुणों के नाम नहीं दिये गये हैं मात्र कुछ गुणों का नाम देकर अन्यगुणों का संकेत किया गया है । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने तत्त्वार्थसार में "गोत्रकर्मसमुच्छेदात्सदाऽगौरवलाघवाः।" इन शब्दों द्वारा सिद्धों में प्रगुरुलघुगुण का कथन किया है।
-जं. ग. 19-11-70/VII/ श्रां. कु. बड़जात्या शंका-सिद्धों में अगुरुलघुगण में हानि वृद्धि की अपेक्षा या अन्य किन्हीं गुणों की अपेक्षा भेव किया जा सकता है या नहीं?
समाधान-स्वाभाविक अगुरुल घुगुण में नियत क्रम अनुसार प्रविभागप्रतिच्छेदों में हानि-वृद्धि होती रहती है। अतः सिद्धों में अगुरुलघुगण में हानि-वृद्धि की अपेक्षा से कोई भेद नहीं है । सिद्धों में अन्य गुणकृत भेद भी नहीं है, क्योंकि सभी गुण शुद्ध स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त हो गये हैं। क्षेत्र, काल व अवगाहना संबंधी भेद है। पूर्वपर्याय की अपेक्षा सिद्धों में भेद किया जा सकता है जिसका कथन स. सि. अ १० सूत्र की टीका में किया गया है। वह सूत्र निम्नप्रकार है-"क्षेत्रकालगति लिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ।"
-जं. ग. 1-4.71/VII/र. ला. जैन अगुरुलघुगुण में एक ही समय में पूरी षट्स्थान पतित वृद्धि हानि नहीं हो सकती
शंका-आत्मा में एक अगुरुलघगुण भी है, जिसमें प्रतिसमय षट्स्थानपतितहानि वृद्धि होती है तथा यह स्वभावपर्याय है, सिद्धों में भी होय है । इसके विषय में पं० दीपचन्दजी शाह ने चिद्विलासनामक पुस्तक के पृ० ८६ पर लिखा है-"षटगुणी वृद्धि हानि एकसमय में सधं है।" इसमें मुझे शंका है कि अशुद्ध जीव में स्वभावपर्याय कैसे संभव है ? एक ही समय में षट्स्थान-हानि और षट्स्थानवृद्धि अर्थात् छहप्रकार की हानियों और छहप्रकार की वृद्धियाँ एक ही अगुरुलघगुण की बारह पर्यायें एक ही समय में कैसे संभव हैं ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org