Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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को लक्ष्य करके उन्हें बताना किस तरह संभव है ? तिलोयपण्णत्ती अधिकार ४ गाथा ८०८ और ९२६ में बताया है कि 'समवसरण स्थित वापिकाओं के जल में और भगवान के प्रभामण्डल में अवलोकन करने पर मनुष्यों को अपने सातमवों का दर्शन हो जाता है। अगर ऐसी बात है तो फिर भव जानने के लिये श्रोता प्रश्न ही क्यों करते हैं और भगवान भी उत्तर क्यों देते हैं ? समवसरण वापिकाओं में और प्रभामंडल में जो भव दिखाई देते हैं वे किसरूप में दिखते हैं उनकी क्या सब भूत भविष्य की पर्याय दिखती हैं ? वे क्रम से दिखती हैं या एक साथ ? आदि । एतद् विषयक सब बातों का पूर्ण स्पष्टीकरण करें।
समाधान-केवलीभगवान के मोहनीयकर्म का अभाव हो जाने से इच्छा का भी प्रभाव है अतः प्रश्न के पश्चात उत्तर देने की इच्छा न होने से केवलीभगवान उत्तर नहीं देते। फिर भी प्रथमानुयोग में जो यह कथन माता है कि केवलीभगवान ने उत्तर दिया उसका यह अभिप्राय है कि भगवान की दिव्यध्वनि के बीजाक्षर, अतिशय के कारण प्रश्नकर्ता के कानों में प्रवेश करते समय प्रश्न के उत्तरस्वरूप परिणम जाते हैं अथवा दिव्यध्वनि के निमित्त से प्रश्नकर्ता के ज्ञान का क्षयोपशम ऐसा हो जाता है कि उसको अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं समझ में मा जाता है। अतः मुष्टिसंबंधी केवली भगवान कोई उत्तर नहीं देंगे। केवली स्याद्वादी अवश्य हैं, किन्तु भविष्य का अपेक्षाकृत या किसी प्रकार भी उत्तर देना संभव नहीं है । भविष्य को सर्वथा निश्चित या नियत मान लिया जावे तो मनुष्य का पुरुषार्थ निरर्थक हो जावेगा। मनुष्य स्वतंत्र भी है। कर्म के तीव उदय में परतंत्र है, किन्तु मंदउदय में पुरुषार्थ द्वारा भविष्य में उदय में प्राने वाले कर्म का संक्रमण, स्थितिघात, अनुभागघात कर सकता है। शराब को पीने से नशा चढ़ता है, न कि शराब को पीना ही था और नशा चढ़ना ही था। 'केवली का भविष्यसंबंधी ज्ञान अपेक्षाकृत है' ऐसा कथन अागम में नहीं पाया जाता। बाह्य कारणों के मिलने पर पोर मायुकर्म की उदीरणा होने पर कर्मभूमिज मनुष्यों व तियंचों की अकालमृत्यु हो सकती है। उत्तरपुराण पर्व ७६ के प्रकरण का केवली से कोई सम्बन्ध नहीं है । किनु पर्व ७२ श्लोक १८० में कहा है-'बारह वर्ष के बाद मदिरा का निमित्त पाकर यह द्वारावतीपुरी द्वीपायन के द्वारा निर्मूल नष्ट हो जायेगी।' यह ही कथन हरिवंशपुराण इकसठवा सर्ग श्लोक २२.२३ में है। केवली को भविष्य का ज्ञान नियति-अनियतिरूप से है।
श्री गौतमगणधर ने सर्वावधि ध विपुलमति मनःपर्य यज्ञान के द्वारा श्री श्वेतवाहनमुनि के विषय में यह तो बतला दिया कि-बाह्यकारणों के मिलने से इनके अन्तःकरण में तीव्र अनुभागवाले क्रोधकषाय के स्पर्धकों का उदय हो रहा है। संक्लेशरूप परिणामों से उनके तीन अशुभ लेश्यामों की वृद्धि हो रही है। जो मन्त्री प्रादि प्रतिकूल हो गये हैं उनमें हिंसादि सर्वप्रकार के निग्रहों का चितवन करते हुए वे संरक्षणानन्द नामक रौद्रध्यान में प्रविष्ट हो रहे हैं। किन्तु भविष्य के विषय में यह कहा-यदि अब पागे अन्तमुंहतं तक उनकी ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरकप्रायू का बंध करने के योग्य हो जावेंगे।' (उत्तरपुराण पर्व ७६ श्लोक २१-२३ ) इस कथन से यह विदित होता है कि भविष्य की पर्याय सर्वथा नियत नहीं है अन्यथा श्री गौतमगणधर भविष्य के लिये 'यदि' शब्द का प्रयोग न करते । जिसप्रकार श्री गौतमस्वामी ने भूत व वर्तमान के लिये निश्चितरूप से उत्तर दिया था उसीप्रकार भविष्य के लिये निश्चितरूप से उत्तर न देकर अपेक्षाकृत उत्तर दिया। यद्यपि उनको अवधि व मनःपर्ययज्ञान के द्वारा अनेक भवों का तथा भविष्यसम्बन्धी प्रोदयिक, क्षायोपशमिक व भौपशमिकभावों का ज्ञान था।
केवली को जब सब पर्यायों का ज्ञान है अतः भविष्य की प्रत्येक समय की पर्याय का भी ज्ञान है। किन्तु भविष्य की पर्याय नियत भी हैं अनियत भी हैं, अतः जिसरूप से भविष्य की पर्याय हैं उसीरूप से उन पर्यायों का केवली को ज्ञान है। पर्याय सर्वथा नियत नहीं है अत: उपदेश व संयमादि का व्यवहार है। यदि पर्यायों को सर्वथा
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