Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२१५
क्योंकि वह अनन्तमयी केवलज्ञान का विषय है । जो राशि व्यय होते रहने पर भी समाप्त नहीं होती वह राशि वास्तविक अनन्त है | ऐसी अनन्तराशि का अन्त है ही नहीं । जिस राशि का अन्त है ही नहीं उस राशि के अन्त को सर्वज्ञ कैसे जान सकते हैं। कुछ सज्जन ऐसा कहते हैं कि 'सर्वज्ञ वास्तविक ( अक्षय ) अनन्तराशि के अन्त को भी जानते हैं, अन्यथा सर्वज्ञता का अभाव' हो जायगा ।' किन्तु उनका ऐसा कहना, सर्वज्ञता के अभाव को सिद्ध करता है । जिस राशि का अन्त नहीं है, उस राशि के अन्त को केवलज्ञान जानता है' इस कथन से 'केवलज्ञान' मिथ्याज्ञान हो जायगा । अक्षय प्रनन्त राशि सर्वज्ञ और छद्मस्थ दोनों की अपेक्षा से 'अनन्त' है; 'सान्त' नहीं है । सर्वज्ञता के अभाव के भय से वस्तुस्वरूप का प्रन्यथा कथन करना उचित नहीं है । इस श्रन्यथा कथन में नियतिवाद का कथन भी गर्भित है ।
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- जं. सं. 6-11-58/V/ सिरेमल जैन
(१) कथंचित् पर्याय क्रमबद्ध कही जा सकती है (२) क्रमबद्धपर्याय सर्वथा पूर्वनिश्चयानुसार नहीं होती
शंका- विभाव या भावबन्ध क्या यह क्रमबद्धपर्याय है ?
समाधान - विभाव या भावबन्ध ( भावकर्म ) पर्याय हैं। पर्याय क्रम से होती हैं, एकगुण की एकसमय में एक से अधिक पर्याय नहीं है अतः पूर्व पर्याय का नाश ( व्यय ) और उत्तरपर्याय का उत्पाद प्रतिसमय होता रहता है । पर्याय क्रमवत हैं । अतः पर्याय ( विभाव ) इस अपेक्षा से क्रमबद्ध कही जा सकती है ।
शंका - क्रमबद्धपर्याय क्या पूर्व निश्चयानुसार होती है ?
समाधान - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, श्राकाशद्रव्य, कालद्रव्य, सिद्धजीव में अगुरुलघुगुण व कालद्रव्य के निमित्त से जो प्रतिसमय शुद्ध परिणमन होता है यह नियत है । अपने नियत क्रमानुसार होता रहता है, किन्तु यह नियम विभावर्याय में सर्वथा लागू नहीं होता है, क्योंकि विभाव पर्याय में कालद्रव्य के अतिरिक्त अनेक बाह्यकारण होते हैं । उन सब बाह्यकारणों व अंतरंग कारण के मिलने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है, अन्यथा नहीं । ( आप्तपरीक्षा कारिका की टीका ) कार्य का क्रम, अक्रम, कारण के क्रम, अक्रम अनुसार है - 'कारण क्रमाक्रमानुविaftarकार्य क्रमाक्रमस्य ।' कार्य का होना, न होना विलम्ब से होना व जल्दी होना सब कारण के व्यापार पर निर्भर है - ' तद् व्यापाराधितं हि तद्भावभावित्वम् |' परीक्षामुख ३।५६ । अतः विभाव पर्याय सर्वथा पूर्व निश्चयानुसार होती है ऐसी बात नहीं है । यदि क्रमबद्धपर्याय को सर्वथा पूर्व निश्चयानुसार मान ली जावे तो तत्त्वोपदेश व्रत, संयम, तप, औषधि सेवन, सर्प-सिंह प्रादि से बचना सब व्यर्थं हो जायगा । अकालमृत्यु भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। जिससे आगम से विरोध आ जायगा । श्री राजवार्तिक में इसप्रकार कहा है- 'जैसे अम्र के पकने का नियमरूप काल है । तार्ते पहिले भी उपाय करि क्रिया का आरंभ होते सेते, आम्रफलादि के पकना देखिये है । तसे ही प्रायुबंध के अनुसार नियमित मरणकाल ते पहिले उदीरणा के बल से आयुकर्म का घटना होय है । जैसे वैद्यकशास्त्र के जानने में चतुर वैद्य, चिकित्सा में अतिनिपुण, वायु आदि रोग का काल आए बिना ही पहिले वमन विरेचन आदि प्रयोग करि नहीं उदीरणा को प्राप्त भये श्लेष्मादिक का निराकरण करे है । बहुरि अकालमरण के प्रभाव के अर्थ रसायन के सेवन का उपदेश दे है प्रयोग करे है। ऐसा न होय तो वैद्यकशास्त्र के व्यर्थपना ठहरे। सो वैद्यकशास्त्र मिथ्या है नाहीं । यातें वैद्यकशास्त्र की सामर्थं तें अकालमृत्यु है ऐसा सिद्ध होय है । वैद्यकशास्त्र का प्रयोग अकालमरण न होने के अर्थ भी प्रयोग करे हैं ।' (पं० पन्नालाल न्यायदिवाकर कृत अनुवाद) । यदि मृत्यु का समय पूर्व निश्चित था तो
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