Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२१८ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
आये बिना कार्य होय नाहीं, तात आयु के अपवर्तन कहना नाहीं संभवे है ? उत्तर-ऐसा कहना ठीक नाहीं है, जात प्राम्रफल आदि की ज्यों अप्राप्तकाल वस्तु का उदीरणा करि परिणमन देखिए है। जैसे आम का फल पाल में दिये शीघ्र पके है, तैसे कारण के वशतें, जितनी स्थिति को लिये आयु बांध्या था, ताकी उदीरणा करि अपवर्तन होय पहले ही मरण हो जाय । चिकित्सा में अतिनिपुण मैद्य अकालमरण के अभाव के अर्थ रसायन के सेवन का उपदेश करे है. प्रयोग करे है, ऐसा न होय तो मैद्यकशास्त्र के व्यर्थपणा ठहरे है किन्तु मैद्यशास्त्र मिथ्या है नाहीं। अकालमृत्यू को दूर करने अर्थ चिकित्सा देखिये है।" इन प्रागमप्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रत्येक पर्याय का कोई नियतसमय हो ऐसा नहीं है, किन्तु बाह्य और अंतरंगकारणों के अनुसार कार्य की उत्पत्ति होती है। श्री समयसार व प्रवचनसार या उनके टीकाकार ने यह नहीं कहा कि प्रत्येक द्रव्य की प्रत्येकपर्याय का काल नियत है, क्योंकि वे वीतराग गुरु थे अतः मागम विरुद्ध कैसे उपदेश दे सकते थे।
-जै. सं. 15-1-59/V/ सोपचंद अमथालाल शाह कलोल (गुजरात) उपर्युक्त शंका के सम्बन्ध में पं० मुन्नालालजी रांधेलीय, न्यायतीर्थ,
सागर द्वारा भेजा गया समाधान इसप्रकार है-सं० समयसार गाथा ३०८ आत्मख्याति टीका में ऐसा उद्धरण है। उसके अर्थ एवं रहस्य में कुछ विवाद सा है। श्री कानजीस्वामी और पण्डितवर्ग भिन्न-भिन्न अर्थ लगाते हैं। यद्यपि क्षायोपशमिकज्ञान में यह असम्भव नहीं है परन्तु सत्य वही है जो आगम पोर युक्ति से पुष्ट होकर अनुभव में उतर जाने। उसमें पक्षपात को गुंजायश नहीं रहती, न रहना चाहिये। बुद्धि का कोई ठेका नहीं है । प्रादि प्रादि ।
मेरी समझ में पूर्वोक्त वाक्यों का ( शब्दों का ) अर्थ इस तरह आता है कि जीवद्रव्य वा अजीवद्रव्य सभी का परिणमन ( परिणाम या पर्याय ) दो तरह का होता है ( १ ) क्रमिक ( २ ) नियमित । अर्थात् १ क्रमबद्ध (क्रमवर्ती) २ नियमबद्ध ( नियमवर्ती ) । सो क्रमबद्ध या क्रमिक उसे कहते हैं जो क्रम से हो याने भूत-वर्तमानभविष्यत ( उत्पन्न-उत्पद्यमान-उत्पत्स्यमान ) के रूप में हो। जैसाकि होता रहता है-शा नियमबद्ध या नियमित उसे कहते हैं जो उसीद्रव्य का उसी में हो ( नियत या निश्चित परिणामरूप ) जैसे जीव
व्य का जीव में. जीवद्रव्य का अजीवद्रव्य में होता रहता है। अन्य का अन्य में नहीं। सो ऐसा उभयरूप परिणाम जीवद्रव्य में एवं अजीवद्रव्य में सदैव होना पाया जाता है। और निश्चय में स्वतः सिद्ध है। व्यवहार में परतः (निमित्त से ) सिद्ध कहते हैं । बस, यही क्रमबद्ध या क्रमिक तथा नियमित या नियमबद्ध पर्याय का अर्थ है। न कि उसका अर्थ नियतवाद ( नियतकाल ) या एकान्तवाद है, जैसाकि बहुधा बिना विचारे समझे, लोग यद्वातदा अर्थ कर देते हैं । मूल में शब्दभेद भी है-नियमितशब्द है, नियतशब्द नहीं है। यह तत्त्वविचार बड़ा गहन है, इसमें कठिनाई से प्रवेश होता है । सो जब यथार्थ में भीतर प्रवेश होता है तभी उसको स्याद्वादरूप मिलता है तथा एकांतवाद हट जाता है।
नोट-इसी प्रकार समाधान प्रवचनसार की गाथा नं०७, अध्याय २ तथा राजवातिक के उद्धरणों भी समझना उपयुक्त होगा। इसके सिवाय नियतकाल मानने पर सबसे बड़ी हानि श्री कानजीस्वामी को ही होगी। इसलिये कि वे स्वयं निमित्तकारणों को अकिंचित्कर मानते हैं । उपादानकारण को ही मुख्य सर्गस्व कहते हैं। तब नियतकाल मानने पर कालद्रव्य भी निमित्तकारणरूप मुख्य सिद्ध हो जावेगा । एवं वह किंचित्कर ठहर जाएगा। इत्यादि दोषोत्पत्ति होगी।
१. पर्वपर्याय का व्यय व उत्तरपर्याय का उत्पाद कालिक क्रमरूप।
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