Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२२४ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
नय भी मिथ्या होगा । अतः सम्यगेकान्त के लिये भी अर्पितनय की अपेक्षा से नियत ( क्रमबद्ध पर्याय ) और अनपितनय की अपेक्षा से अनियत ( अक्रमबद्ध पर्याय ) स्वीकार करना होगा ।
अनियत ( क्रमबद्धपर्याय ) निरपेक्ष नियत क्रमबद्धपर्याय ) मिथ्या एकान्त है । भ्रतः मिथ्या एकान्त का दुराग्रह छोड़कर जैन धर्म के मूल सिद्धान्त अनेकान्त अथवा प्रतिपक्ष सापेक्ष सम्यगेकान्त की श्रद्धा ग्रहण करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है ।
शंका- 'क्रमबद्ध पर्याय' पर्याय नाशवान है, ऐसा एकान्त है तो फिर पर्याय नियत ( क्रमबद्ध ) है ऐसा भी एकान्त क्यों नहीं मान लेते ?
समाधान - ' पर्याय नाशवान है' ऐसा सर्वथा नहीं है अर्थात् ऐसा एकान्त नहीं है कि ' पर्याय नाशवान है ।' कुछ पर्यायें 'अनादि श्रनन्त' हैं, जैसे प्रकृत्रिम चैत्यालय सुदर्शनमेरु आदि पुद्गल की पर्यायें, अभव्यत्व जीव को पर्याय । कुछ पर्यायें सादि-अनन्त भी हैं, जैसे सिद्धपर्याय आदि । कुछ पर्यायें सादि- सान्त हैं; उनमें से कुछ पर्यायें एक समयवर्ती हैं और कुछ पर्यायें संख्यात, असंख्यात या अनन्त समयवाली हैं। श्री वीरसेनाचार्य ने भी कहा है " प्रभव्यत्व जीव की व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्याय का श्रवश्य विनाश होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने से एकान्तवाद का प्रसंग आ जायगा ।" ( ध० पु० ७, पृ० १७८ )
पर्याय का विनाश अवश्य होना चाहिये, जब ऐसा भी एकान्त नहीं है; फिर पर्यायों का क्रम नियत ( क्रमबद्ध ) होना चाहिये ऐसा एकान्त कंसे स्वीकार किया जा सकता है। जैन प्रागम में घपेक्षा बिना एकान्त को तो मिध्याएकान्त कहा है । अनेकान्त जैनागम का प्राण है ।
क्रमबद्ध पर्याय मानने पर आने वाले दोष:
- ज. ग. 20-12-62 / / डी. एल. शास्त्री
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(१) व्यसन त्याग के उपदेश की अनावश्कता (२) द्रव्यानुयोग व चरणानुयोग की व्यर्थता (३) श्रकालनय व श्रनियति नय का प्रभाव ( ४ ) प्रन्याय पोषण का प्रसंग
(५) श्रलोचन प्रतिक्रमण आदि का प्रभाव
शंका -- केवलज्ञानी ने जिसपदार्थ को जिससमय, जिसस्थान पर जिसकेद्वारा सेवन होना देखा है वह पदार्थ उसी समय उसी स्थान पर उसीके द्वारा अवश्य भोगा जायगा । उसको कोई भी निवारण करने में समर्थ नहीं है अर्थात् दाने-दाने पर मोहर है। तब मद्य, मांस, मधु आदि के त्याग से क्या लाभ ? केवली ने हमारे द्वारा जिस
- मांस-मधु आदि का सेवन जिस समय जिस स्थान पर होना देखा है, उस मद्य मांस आदि का हमारे द्वारा उसी समय उसी स्थान पर सेवन अवश्य होगा । उस सेवन को हम त्याग के द्वारा निवारण नहीं कर सकते । हमारी सब परिणति केवलज्ञान के द्वारा नियत हो चुकी है फिर बाह्यवस्तु का तथा अन्तरंग रागद्वेष का त्याग करना हमारे वश में कैसे है ?
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