Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२२३
है' इसका उत्तर देते हुए महानाचार्य अकलंकदेव लिखते हैं- 'भव्यों की कर्मनिश का कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्ष का ही । अतः भव्य के मोक्ष के कालनियम की बात उचित नहीं है। यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय तो बाह्य और आभ्यंतर कारण सामग्री का ही लोप हो जायगा ।' श्री अकलंकदेव यह भी जानते ये कि 'केवलज्ञानी तीनकाल की पर्यायों को जानते हैं; जैसा कि उन्होंने रा० वा० अ० एक सूत्र २९ की टीका में कहा है, फिर भी उन्होंने यह स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'भन्यजीव के मोक्षप्राप्ति का कोई समय निश्चित नहीं है' धागमवाक्य इतने स्पष्ट होने पर भी जो एकान्त क्रमबद्धपर्याय का डंका बजा रहे हैं वे विचार करें कि उनको दिगम्बर जैनागम पर श्रद्धा है या नहीं ।
- प. ग. 29-11-62 / VIII / डी. एल. शास्ती
सर्वथा "क्रमबद्धपर्याय", यह मिथ्या एकान्त है
शंका--' वस्तु अनेकान्तात्मक हो है' यह भी तो एकान्त हुआ। भले ही आप अपने को अनेकान्तवादी कहते हों, वास्तव में तो आप भी एकान्तवादी हैं, फिर एकान्त को सर्वथा मिथ्या क्यों कहते हो ? सम्यगेकान्त का कथन भी तो भी समन्तभद्राचार्य ने किया है। जिसप्रकार 'सर्वथा अनेकान्त है,' इस एकान्त को सम्यगेकान्त कहते हो, उसीप्रकार सर्वथा क्रमबद्ध पर्याय को सम्यगेकान्ल क्यों नहीं मान लेते ?
समाधान - प्रनेकान्त को सर्वधा एकान्तरूप कहना उचित नहीं है, क्योंकि अनेकान्त भी प्रमाण और नय से सिद्ध होता हुआ अनेकान्तरूप है, प्रमाण की अपेक्षा वह अनेकान्तरूप है और अर्पितनय की अपेक्षा एकान्तरूप भी है । गृहस्वयम्भू स्तोत्र श्लोक १०३ ।
वस्तु प्रमाण की अपेक्षा नित्य-अनिश्वरूप अनेकान्तात्मक है किन्तु वही वस्तु द्रव्याथिकनय की मुख्यता से नित्य ही है और पर्यायार्थिकनय की मुख्यता से अनित्य ही है। प्रमाण सकलादेश और नए विकलादेश है' नित्य- अनित्य उभयरूप प्रमाण का विषय है किन्तु केवल नित्य अथवा केवल अनित्य, यह नय का विषय है ।
प्रता
प्रमाण की अपेक्षा वस्तु नित्य-अनित्यात्मक है यह तो अनेकान्त है, क्योंकि इसमें परस्पर दो विरोधी धर्मों का ग्रहण है। द्रव्याविकनय की अपेक्षा वस्तु 'नित्य' ही है यह सम्यनेकान्त है, क्योंकि द्रव्याचिकनय का विषय मात्र 'नित्य' है प्रत द्रव्याचिकनय 'अनिश्यता' को ग्रहण करने में असमर्थ है। यदि द्रव्याथिक नय का विषय भी निस्प अनित्य हो जाय तो प्रमाण व नय में कोई अन्तर नहीं रहेगा अथवा पर्यायार्थिकनय का कोई विषय न रहने से पर्यायार्थिकनय के अभाव का प्रसंग आवेगा । पर्यायार्थिकनय का अभाव है नहीं, क्योंकि सर्वज्ञ ने दो नय कहे हैंयाचिक और पर्यायार्थिक ( पंचास्तिकाय गापा ४ समय व्याख्या टीका ) यदि इत्याधिकनव की अपेक्षा बिना 'द्रव्य नित्य ही है' ऐसा कहा जायगा तो वह मिध्या एकान्त हो जायगा। इसीप्रकार विना किसी अपेक्षा के 'पर्याय क्रमबद्ध' अर्थात् नियत हैं ऐसा कहना भी मिथ्या एकान्त है सम्यगेकान्त नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि केवलज्ञान की अपेक्षा से पर्यायें क्रमबद्ध अर्थात् नियत हैं, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान प्रमाण है और प्रमाण सकलादेश है, उसकी अपेक्षा तो पर्यायें नियत श्रनियत उभयात्मक होंगी, मात्र नियत ( क्रमबद्ध ) नहीं हो सकतीं । केवल नियत विकलादेश होने से नय का विषय है। पर्यायों को केवल नियत कहने के लिए किसी नय की शरण लेना होगा और यदि वह नय अपने प्रतिपक्षनय से निरपेक्ष है तो वह
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१. सकलादेश: प्रमाणाधीन: विकलादेशो नयाधीनः । ( स. सि. अ. १ )
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