Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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सकता) के सिद्धांत को जिनप्रागम में मिथ्यात्व कहा है ( पञ्च० श्लो० ३१२, प्रथम अध्याय पृ० ११०; गो० क० गाथा ८८२) अतः ऐसी मान्यता कि 'सनद्रव्यों को भविष्य की सर्नपर्याय नियत हैं उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता' मनुष्य को पुरुषार्थहीन कर देती है। प्रत्येक मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा कर्मों को नाशकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । मोक्ष जाने का कोई काल नियत नहीं है । ( रा. वा. म. १, सूत्र ३ को टीका )
-जै. सं. 5.3-59/VI/ रामकलाश, पटना
(१) पर्यायें कथंचित् मियत व कथंचित् अनियत हैं (२) परमाणु कथंचित् निरवयव तथा कथंचित् सावयव (३) "समय" कथंचित् निरवयव कथंचित् सावयव
शंका-जब केवलज्ञानी ने प्रत्येकद्रव्य की भविष्य व भूत की सब पर्यायों को जान लिया है तो केवलज्ञानी ने जिस समय जिसपर्याय को देखा है उससमय उसद्रव्य को वह पर्याय ही होगी। फिर सर्वथा क्रमबद्ध पर्याय मानने में क्या हानि है ?
समाधान-'क्रमबद्ध पर्याय का शब्द किसी भी दि. जैन आगम में नहीं है। प्रायः सभी महान प्राचार्यो ने यह कथन किया है कि केवलज्ञानी प्रत्येकद्रव्य की समस्तपर्यायों को जानते हैं, किन्तु फिर भी किसी आचार्य ने क्रमबद्धपर्याय का कथन क्यों नहीं किया ? प्रागम में 'नियति' का कथन अवश्य पाया जाता है जिसे केवलज्ञानी ने अपनी दिव्यध्वनि में एकान्तमिथ्यात्व कहा है। इस दिव्यध्वनि के अनुसार गणधर महाराज ने द्वादशांग को रचना की है, जिसके बारहवें दृष्टिवाद अंग के 'सूत्र' नामक अधिकार के तीसरे अधिकार में नियति' परमत का खंडन है।'
इस 'नियति' का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-"जब जैसे जहाँ जिस हेत से जिसके द्वारा जो तभी तैसे ही, वहाँ ही, उसी हेतु से उसीके द्वारा वह होता है । यह सर्व नियति के अधीन है दूसरा कोई कुछ भी नहीं कर सकता। ( संस्कृत पंचसंग्रह अ० १ श्लोक ३१२; गो० क० गा० ८८२, प्राकृत पंचसंग्रह पृ० ५४७ ।)
यदि केवलज्ञानी ने प्रत्येकद्रव्य की पर्यायों को सर्वथा 'नियतरूप' से देखा होता तो वे 'नियति' को एकान्त मिथ्यात्व क्यों कहते । इससे सिद्ध है कि केवलज्ञानी ने पर्यायों को कथंचित् नियतिरूप और कथंचित् अनियतिरूप देखा है।
यदि कहा जाय कि स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१.३२२ में 'नियति' का उपदेश दिया गया है। सो यह भी ठीक नहीं है। वहाँ पर सम्यग्दृष्टि को व्यंतर प्रादि कुदेवों के पूजने के निषेध के लिये यह बतलाया गया है कि "कोई भी व्यंतर आदिक किसी जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकता, शुभ या अशुभकर्म हो जीव का उपकार या अपकार करते हैं | व्यंतर आदि यदि जीव को लक्ष्मी आदि दे सकते हैं तो फिर धर्माचरण के द्वारा शुभ कर्म से क्या लाभ ? (गाथा ३१६.३२०) । ध्यंतर आदि क्षुद्रदेव ही नहीं किन्तु बड़े-बड़े इन्द्र या स्वयं जिनेन्द्र भी उस सुख-दु ख को टालने में असमर्थ हैं ( गाथा ३२१-३२२ )।' क्योंकि कोई भी अन्यजीव के कर्मों में
१. अट्ठासी-अहियारेसु घउण्हमाहियाराणमस्थि णि सो। पठमो अबंधयाणं विदियो तेरासियाण बोडयो। तदियो य णियड-पक्खे हवड यउत्थो ससम्यम्मि ।
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