Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १२१७
समाधान-श्री समयसार गाथा ३०८-३११ की टीका में 'क्रमनियमित' शब्द का अर्थ क्रमवर्ती है, क्रमबद्ध नहीं है । पर्याय क्रमवर्ती होती हैं युगपत् नहीं होती अतः टीकाकार ने 'क्रमनियमित' शब्द दिया है । अथवा 'नियमित' शब्द 'क्रम' का विशेषण नहीं है किन्तु 'प्रात्मपरिणाम' का विशेषण है जैसा कि पं० जयचन्दजी के अर्थ से विदित होता है। पं० जयचन्दजी ने इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार किया है-'जीव है सो तो प्रथम ही और नियत निश्चित अपने परिणाम तिनिकरि उपजता संता जीव ही है, प्रजीव नहीं है।' ('नियमित' शब्द देने का प्रयोजन यह है कि जीव के परिणाम जीवरूप ही हैं मजीवरूप नहीं हैं। ) पं० जयचन्दजी ने भावार्थ में भी कहा है-'सर्वद्रव्यनि के परिणाम न्यारे न्यारे हैं' पं. जयचन्दजी के शब्द ज्यों के त्यों कलकत्ता से प्रकाशित समयसारप्राभूत में दिये हुए हैं । अतः श्री समयसार आत्मख्याति गाथा ३०८-३११ से 'क्रमबद्धपर्याय अर्थात् एकान्तनियति' का सिद्धांत सिद्ध नहीं होता।
श्री प्रवचनसार गाथा ७ व २१ अध्याय २ की टीका से भी 'क्रमबद्ध पर्याय' की पुष्टि नहीं होती है। गाथा २१ में 'असत् उत्पाद' का कथन है। जिस काल में जो पर्याय उत्पन्न हुई है उससे पूर्वकाल में वह पर्याय आविद्यमान थी अतः असत् का उत्पाद है। जिसकाल में जो पर्याय अपने अनुकूल अंतरंग व बहिरंग कारणों से उत्पन्न होती है वह काल उस पर्याय का स्वकाल कहलाता है। यहाँ पर पर्याय के स्वकाल से यह अभिप्राय नहीं है कि प्रत्येक पर्याय का काल निश्चित है। गाथा ७ में यह बतलाया गया है-"उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर भी द्रव्य सतरूप है। स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से द्रव्य सत् है । ध्रौव्य-उत्पाद विनाश की एकतारूप परिणाम द्रव्य का स्वभाव है। प्रवाहक्रम में प्रवर्तमान द्रव्य के सूक्ष्म-अंश परिणाम हैं वे परिणाम परस्पर व्यतिरेक ( भिन्न-भिन्न भेद लिए हुए) हैं, अन्यथा प्रवाहक्रम नहीं हो सकता था। परिणामों की परस्पर व्यतिरेकता सिद्ध करने के लिए इन पंक्तियों में यह कहा गया है कि प्रत्येक परिणाम का अपना-अपना काल भिन्न है अतः प्रत्येक परिणाम अपनेअपने काल पर उत्पन्न होता है उससमय पूर्व परिणाम नाश हो जाते हैं। यदि उससमय पूर्वपरिणाम नाश न हो तो परिणामों में व्यतिरेकता नहीं हो सकती। यहाँ पर 'स्वावसरे' का अर्थ 'नियतकाल' नहीं है। अंतरंग और बहिरंग निमित्तों से जिस अवसर या काल में जो पर्याय प्रगट हो गई वह ही उसपर्याय का काल है। पं. टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्गप्रकाशक में ऐसा ही कहा है-'काललब्वि वा होनहार तो किछु वस्तु नाहीं। जिस काल विष कार्य बनै सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार ।' श्री प्रवचनसार के परिशिष्ट में श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने कहा है 'आत्मद्रव्य अकालनय से जिसकी सिद्धि समय पर प्राधार नहीं रखती ऐसा है, कृत्रिम गर्मी से पकाये गये प्राम्रफल की भांति ।'
श्री आचार्य अकलंकदेव ने भी श्री राजवातिक में इसीप्रकार कहा है-भव्य के नियमित काल करि ही मोक्ष की प्राप्ति है ऐसा कहना भी अनवधारणरूप है, जात कर्म की निर्जरा को काल नियमरूप नहीं है, भव्यनि के समस्त कर्म की निर्जरा पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति में काल का नियम नहीं संभव है। कोई भव्य तो संख्यात काल करि
प्राप्त हो गये, कोई असंख्यातकाल करि और कोई अनन्तकाल करि सिद्ध हो गये। बहुरि अन्य कोई भव्य हैं ते अनन्तकाल करि के भी सिद्ध न होंयगे । ताते नियमितकाल ही करि भव्य के मोक्ष की उत्पत्ति है, ऐसा कहना युक्त नाही, ऐसा जानना । नियमितकाल ही करि मोक्ष है, यह कहना युक्त नहीं। निश्चय करि जो सर्वकार्य प्रतिकाल इष्ट होय तो प्रत्यक्ष के विषय स्वरूप अथवा अनुमान के विषय स्वरूप बाह्य प्राभ्यतर कारण के नियम का विरोध आवे ( श्री राजवातिक अध्याय १, सूत्र ३ स्वर्गीय पं० पन्नालाल न्यायविवाकर कृत अनुवाद हस्तलिखित पृ० ११५.११६)।" श्री राजवातिक अध्याय २ सूत्र ५३ की टीका में भी प्रश्नोत्तररूप इसप्रकार "प्रश्न-आयु बंध में जितनी स्थिति पड़ी है, ताका अंतिम समय आये बिना मरण की अनुपलब्धि है, जात काल
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