Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२१६ ]
। पं० रतनचन्द जैन मुख्तार।
अकालमृत्यु औषध आदि के द्वारा कसे टल सकती थी ? पर्याय का होना अथवा न होना बाह्य-प्राभ्यंतरकारणों पर निर्भर है। उन कारणों में 'काल' भी एक कारण है । इस विषय में पं० टोडरमलजी ने इसप्रकार लिखा है'तिन कारण विर्षे काललब्धि वा होनहार तो किछु वस्तु नाहीं। जिस काल विर्षे कार्य बने, सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार । ( मोक्षमार्गप्रकाशक अध्याय ९)। श्री राजवातिकजी अध्याय १ सूत्र ३ की टोक में कहा है-'निश्चय करि जो सर्वकार्य प्रति काल इष्ट होय तो, प्रत्यक्ष के विषय स्वरूप अथवा अनुमान के विषय स्वरूप बाह्य-आभ्यंतरकारण के नियम का विरोध आवे है । भावार्थ-कार्यमात्र का भात्मलाभ है सो बाह्य तथा प्राभ्यंतरकारण के निकट होते होय । ताते मोक्ष कार्य प्रतिकाल ही को कारण कहना यह नियम नाहीं संभवे है।' इन आगमप्रमाणों से यह सिद्ध है क्रमबद्धपर्याय सर्वथा पूर्ननिश्चयानुसार नहीं होती।
यदि क्रमबद्धपर्याय को सर्वथा पूर्व निश्चयानुसार मान लिया जावे तो नियतिवाद का प्रसंग आ जावेगा और नियतिवाद गृहीत मिथ्यात्व है। नियतिवाद का स्वरूप इसप्रकार है-'जब जैसे जहाँ जिस हेतु से जिसके नाम जोहोना है. तभी तैसे ही तहाँ ही उसी हेतु से उसी के द्वारा वह होता है। दूसरा कोई कुछ भी नहीं कर
नमोसा मानते हैं कि क्रमबद्धपर्याय पूर्व निश्चयानसार होती है उनकी यह मान्यता मिथ्या है ( पंचसंग्रह गाथा ३१२) और इस मान्यता का लोप करते हैं क्योकि सर्वज्ञ ने काल व अकाल दोनों नयों का उपदेश दिया है।
शंका-क्रमबद्धपर्याय क्या विभावभाव मानी गयी है ?
समाधान-पर्याय क्रम से होती हैं। पर्याय स्वभाव व विभाव दोनों प्रकार की होती हैं। क्रमबद्धपर्याय पति क्रम से होनेवाली पर्याय न केवल स्वभाव ही हैं और न केवल विभाव ही हैं अतः क्रमबद्धपर्याय को मात्र विभाव मानना उचित नहीं है।
शंका-शास्त्रों में यह बतलाया है कि 'क्रममाविनो पर्यायाः, सहभाविनो गुणाः' यानी पर्याय क्रमभावी है। क्या यह ठीक है और किस आधार पर होती हैं ?
समाधान-एक गण या एक द्रव्य की पर्याय क्रम से होती हैं यह कथन ठीक और आगमान कल है। प्रत्येक पर्याय अपने अनुकूल अतरंग व बहिरंग समर्थकारणों के मिलने पर होती है. कारणों के अभाव में नहीं होती। यदि अनुकूल समर्थकारण मिलेंगे तो पर्याय होंगी यदि कारण नहीं मिलेंगे तो पर्याय नहीं होगी। 'कारण के अभाव में कार्य ( पर्याय ) की उत्पत्ति नहीं होती' (प० ख० पु० १२ पृष्ठ ३८२, अष्टसहस्री पृष्ठ १५९ )।
-जं. सं. 20-11-58/V/ छोटालाल घेलामाई गांधी; अंकलेश्वर
किसी भी शास्त्र से क्रम-नियत पर्याय की सिद्धि नहीं होती
शंका-श्री समयसार गाथा ३०८-३११ की टीका में इसप्रकार लिखा है--'जीवो ही तावक्रमनियमिता. स्मपरिणामरुत्पद्यमानो' जीव एव नाजीवः, एवम्जीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः।' यहाँ पर 'क्रमनियमित' से क्या क्रमबद्धपर्याय अर्थात् प्रत्येक पर्याय का काल नियत है ऐसा अर्थ निकलता है। श्री कानजीस्वामी इसके आधार पर क्रमबद्धपर्याय' अर्थात नियति का उपदेश देते हैं। इसीप्रकार श्री प्र० सा०म०२, गापा ७ की टीका में आये हुए 'स्वावसरे स्वरूप पूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्युति' इन शब्दों से नया गाथा २१ में आये हुए 'क्रमानुपाती स्वकाले प्रादुर्भाव:' शब्दों से क्रमबद्धपर्याय का अभिप्राय निकालते हैं। उक्त शब्दों से 'क्रमबद्धपर्याय' की पुष्टि होती है क्या ?
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