Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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११९४ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
प्रागभाव को न मानने पर घटादि पर्यायों के अनादि हो जाने का प्रसंग आ जाता है जो इष्ट नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से विरोध प्राता है।
पर्याय का विनाश प्रध्वंसाभाव है। इस प्रध्वंसाभाव को स्वीकार न करने पर घटादि पर्यायों का उत्पाद होने के पश्चात् कभी विनाश ( व्यय ) न होने से उनके अनन्तत्व का प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि घटादि पर्यायों का अपने-अपने उत्पाद के पूर्व में और विनाश ( व्यय ) के पश्चात् अवस्थान ( सद्भाव ) देखा नहीं जाता है।
एकद्रव्य की एकपर्याय का उसकी दूसरी पर्याय में जो अभाव है, वह इतरेतराभाव है। इस इतरेतराभाव को न मानने पर प्रतिनियत की सभी पर्याय सर्वात्मक हो जाती हैं।
एकद्रव्य में दूसरे द्रव्यों के असाधारण गुणों का जो त्रैकालिक प्रभाव है वह अत्यन्ताभाव है । जैसे पुद्गलदव्य में चैतन्यगण का अभाव है। इसको न मानने पर एकद्रव्य का दूसरे द्रव्य में तादात्म्यसम्बन्ध हो जाने से चेतनअचेतनद्रव्यों की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी।'
-जं. ग. 18-6-70/V/ का. ना. कोठारी शुद्ध गुण को पर्याय एक-अनेक भी होती हैं तथा एक भी ? शंका-गुण की शुद्ध पर्याय एक होती है या अनेक ? यदि अनेक होती हैं तो कौनसे गुण को शुद्धपर्याय अनेक होती हैं ?
समाधान-हरएक गुण की शुद्धपर्याय एक भी होती है और अनेक भी होती हैं। अनेकान्त से दोनों कथन घटित हो जाते हैं।
-. ग./...................... भव्यत्व व अभव्यत्व प्रात्मा के गुण हैं या पर्याय ? शंका-भव्यत्व व अभव्यत्व आत्मा के गुण हैं या पर्याय ? यदि गुण हैं तो उक्त पर्याय शुद्ध या अशुद्ध, कौनसी हैं ? यदि पर्यायें हैं तो किस गुण को पर्यायें हैं तथा वे शुद्धपर्यायें हैं या अशुद्धपर्याय ?
समाधान-'सिद्धपर्याय' जीव की स्वभावव्यञ्जनपर्याय है। श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय में गाथा १६ को टीका में कहा भी है-'स्वभावव्यंजनपर्यायो जीवस्य सिद्धरूपः ।' संसारावस्था में जीव की 'प्रसिदपर्याय' विभावव्यंजन पर्याय है। जीव की असिद्धपर्याय का काल दो प्रकार का है-अनादि-अनन्त अ जिन जीवों के असिद्ध पर्याय का काल अनादि-सान्त है वे भव्य हैं और जिनके अनादि-अनन्तकाल है वे अभव्य हैं। कहा भी है-अघाइकम्मच उबकोदयजणिदमसिद्धत्तं णाम । तं विहं-अणादि अपज्जवसिदं अणादिसपज्जवसिवं चेदि । तत्थ जेसिमसिद्धत्तमणादि-अपज्जवसिदं ते अभवा णाम । जेसिमवरं ते भव्धजीवा।
अर्थ-चार-अघातिकर्मों के उदय से उत्पन्न हम्रा असिद्धभाव है। वह दो प्रकार का है-अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त। इनमें से जिनके प्रसिद्धभाव अनादि-अनन्त है वे अभव्य जीव हैं और जिनके दूसरे प्रकार का है वे भव्य जीव हैं। [ धवला पु. १४ पत्र १३ ] असिद्धपर्याय जीव की व्यञ्जनपर्याय है, अत: उस व्यंजनपर्याय
१. धवल ११/28-30 तथा जयधवल १२५१ भी देखें। .. सं०
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