Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । ते पुद्गलकरणाः । तदभावानिष्क्रियत्वं सिद्धानाम् [पं० का० ९८ टीका ] । समयसार में कहा है-सकलकर्मो. परमप्रवृत्तात्मप्रदेशनष्पंद्यरूपा निष्क्रियत्वशक्तिः [ स० सार; आ० ख्या०, परिशिष्ट, शक्ति सं० २३ ] इससे जाना जाता है कि सिद्धों के प्रदेश-परिस्पन्द नहीं होता; परन्तु ऊर्ध्वगमन तो प्रथमसमयवर्ती सिद्ध के है ही। धवला में भी कहा है-सिद्धों की ऊध्वं गति में परिस्पन्द नहीं होता। ध. पु. ७ पृ. १७, १८, ७७ तथा पु० १० पृ. ४३७ ।
-पत्र 8-1-79/ज. ला. जैन भीण्डर सम्यग्दर्शन व ज्ञान पर्याय चारित्र बिना भी उत्पन्न होती हैं शंका-तत्त्वार्थसूत्र में “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" सूत्र है । यहाँ जिस सम्यग्ज्ञान का उल्लेख है, क्या वह सम्यग्ज्ञान चारित्र के अभाव में संभव है ? क्या जैनाचार्यों को यह मान्य रहा है कि किसी चारित्रहीन व्यक्ति को सम्यग्दर्शन ज्ञान प्राप्त हो जाता है ?
समाधान-एक नहीं अनेक महान दिगम्बराचार्यों का मत रहा है कि चारित्रहीन अर्थात् चारित्ररहित व्यक्ति को सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जाता है । असंख्यात नारकी, तिथंच और देव ऐसे हैं जिनको सम्यग्दर्शन-ज्ञान तो प्राप्त है, किन्तु चारित्र नहीं है अर्थात् चारित्रहीन हैं । सम्यग्दृष्टि-ज्ञानी भोगभूमिया मनुष्य भी चारित्रहीन अर्थात् चारित्ररहित हैं ।
असंयतसम्यग्दष्टि गुणस्थानवाले के सम्यग्ज्ञान तो है, क्योंकि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान युगपत् होते हैं, किन्तु सम्यक्चारित्र नहीं होता है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान युगपत् होते हैं अतः पसंयत-सम्यग्दृष्टि कहने से असंयतसम्यग्ज्ञानी का भी ग्रहण हो जाता है। श्री अकलंकदेव ने राजवातिक में कहा भी है
"युगपदात्मलाभे साहचर्यादुभयोरपि पूर्वत्वम्, यथा साहचर्यात पर्वतनारदयोः, पर्वतग्रहणेन नारदस्य ग्रहणं नारवग्रहणेन वा पर्वतस्य तथा सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चरित्रमुत्तरं भजनीयम् ।"
न्यायदिवाकर श्री पं० पन्नालालजी कृत अर्थ-"सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान इन दोनों का एक ही काल में आत्म-लाभ है । तातें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान इन दोनों को पूर्वपना है । जैसे साहचर्यतें पर्वत और नारद इन दोऊनिका एक के ग्रहण से ग्रहणपना होय है। पर्वत के ग्रहण करि नारद का ग्रहण होय है, अर नारद का ग्रहण करि पर्वत का ग्रहण होय है साहचर्य हेतु तें एक के ग्रहण तें दोऊनिका ग्रहण होय है। तैसे ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोऊनिका साहचर्य संबंधतें एक के ग्रहण किये तिन दोऊनिका ग्रहण होय है यातें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोऊनिका या इन दोऊनि में से एक का आत्म-लाभ कहने पर उत्तर जो चारित्र सो भजनीय
न्यायतीर्य श्री पं० गजाधरलालजी तथा न्यायालंकार श्री पं० मक्खनलालजी द्वारा कृत अर्य-"पर्वत और नारद दोनों एकसाथ रहते हैं इसलिये उनका साहचर्यसम्बन्ध है। पर्वत के ग्रहण करने पर नारद का और नारद के ग्रहण करने पर पर्वत का भी ग्रहण हो जाता है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान र होते हैं इसलिए उनका भी साहचयंसंबंध है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दोनों में से किसी एक के होने पर सम्यकचारित्र भजनीय है। इस रीति से 'पूर्वस्य' इस एकवचन निर्देश से सम्यग्दर्शन का भी ग्रहण हो सकता है और साहचर्यसम्बन्ध से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों का भी।
कविवर श्री पं० दौलतरामजी ने भी छहढाला में कहा है
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