Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२०८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुक्तार 1
अर्थ – जो जिस जीव के जिस देश विषै, जिस काल विषे, जिस विधान कर, जन्म तथा मरण सर्वज्ञदेव ने जाया है, सो तिस प्राणी के तिस ही देश में, तिस ही काल में, तिस ही विधान करि नियम तैं होय है, ताको इन्द्र तथा जिनेन्द्र कोई भी निवार नाहीं सके है । भाषा के कवि ने भी कहा है
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जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे । अनहोनी कबहू नही होती, काहे होत अधीरा रे ॥
जो स्पर्शन इन्द्रिय का विषय हो अथवा जो स्पर्श किया जाता है वह स्पर्श गुण है । ( षट्खण्डागम १।२३८ ) शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, नर्म, कठोर, हलका, भारी स्पर्श के द्वारा जाने जाते हैं । अतः भिन्न-भिन्न होते हुए भी इनको एक स्पर्शनगुण में गर्भित किया है। एक स्पर्शनगुण होते हुए भी कार्यं भिन्न-भिन्न अतः प्रत्येक की भिन्न-भिन्न पर्याय है। जिसप्रकार चेतना एक गुण होते हुए भी उसके ज्ञान और दर्शन दो भिन्न-भिन्न कार्य दिखाई देते हैं । अत: ज्ञान और दर्शन की पर्याय भी पृथक्-पृथक् है । इसी कारण कहीं-कहीं पर तो ज्ञान और दर्शन को भी गुण मान लिया है। एकगुण की एकसमय में एक ही पर्याय होती है और स्पर्शन या चेतना गुण के द्वारा इसमें व्यभिचार भी नहीं आता, क्योंकि उनके द्वारा एकसाथ अनेक कार्य होते हुए दिखाई देते हैं ।
- जै. सं. 31-5-56 / VI / क. दे. गया
क्या हमारी परिणति केवलज्ञान के श्राधीन है ?
शंका- जैसा केवलज्ञानी ने देखा है वैसा ही हम करेंगे। क्या हमारी परिणति केवलज्ञान के आधीन है ?
समाधान - केवलज्ञान का द्रव्य, गुण और पर्यायों के साथ ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध है अर्थात् द्रव्य, गुण व पर्याय ज्ञेय हैं और केवलज्ञान उनका ज्ञायक है । द्रव्य, गुण और पर्यायों के साथ केवलज्ञान का कार्यकारणसम्बन्ध नहीं है । अंतरंग व बाह्य कारणों से कार्य होता है । जैसे अंतरंग व बाह्य कारण होंगे वैसा ही कार्य होगा; अतः यह सिद्ध हुआ कि हमारी परिणति बाह्य और अंतरंग कारणों के प्राधीन है। हमको बाह्य अंतरंग कारण उत्तम मिलाने चाहिये जिससे हमारी परिणति उत्तम हो ।
- जै. सं. 25-7-57 / / ब. प्र. सरावगी पटना
(१) नियति विषयक कथन गोम्मटसार में या कार्तिकेयानुप्रेक्षा में परस्पर श्रविरुद्ध है (२) जीव पुरुषार्थ द्वारा श्रपने जन्म-मरण को टाल सकता है। (३) कथंचित् नियति है, कथंचित् श्रनियति
शंका- तारीख २६-९-५७ के अंनसंदेश में नियतिवाद, सर्वज्ञ सम्बन्धी प्रश्नों का समाधान किया है उसमें नियतिवाद का निम्नस्वरूप बताया है- जो जिससमय, जिससे, जैसे, जिसके नियम से होता है वह उससमय, उससे उसके वैसा होता है। ऐसा नियम से ही सब वस्तु को मानना उसे नियतिवाद कहते हैं। फिर लिखा है कि इसप्रकार की श्रद्धा करनेवाला गृहीत मिथ्यादृष्टि है। अतः इसप्रकार नियति की श्रद्धा नहीं करनी चाहिये ।
जिसे नियतिवाद कहकर मिथ्यादर्शन बताया है उसे ही स्वामी कार्तिकेय ने सम्यग्दर्शन कहा है। 'जं जस्स अम्मिसे जेण विहायेण जम्मि कालम्मि । णादं जिरोण नियदं जम्म वा अहव मरणं वा ॥ ३२१ ॥ तं तस्स
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