Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। तू (अन्य कोई भी द्रव्य या जिनेन्ट) पर जीवों के आयुकर्म को तो हरता नहीं है तो तूने ( या अन्य किसी ने ) उनका मरण कैसे किया। गाथा २४८ जीव आयूकर्म के उदय से जीते हैं ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। तू ( या अन्य कोई भी ) जीवों को आयुकर्म तो नहीं दे सकता तो तुने ( या अन्य किसी ने ) उनका जीवन कैसे किया ? गाथा २५१। सभी जीव कर्म के उदय से सुखी दुःखी होते हैं तू ( या अन्य कोई ) कमं देता नहीं तो तू ( या अन्य कोई ) उन्हें दुःखी-सुखी कैसे कर सकता है ? ॥ गाथा २५४ ।। जो यह मानता है मैं ( या अन्य कोई ) पर जीवों को मार, बचा सकता है, दुःखी या सुखी कर सकता है वह प्रज्ञानी है। गाथा २४७-२५०, २५३, ( समयसार ) भव, क्षेत्र, काल और पुद्गलद्रव्य का प्राश्रय लेकर कर्म उदय में आता है ( क. पा० सु० पृ० ४६५ )।
इन उपयुक्त प्रागमकथनों का यह अभिप्राय है कि-'जिनेन्द्र देव ने ऐसा कहा है या देखा है कि जिस क्षेत्र ( देश ) जिस काल और जिस पुद्गल द्रव्य को आश्रय लेकर उदय में पाने वाले कर्म द्वारा जिस जीव के जो मरण, जीवन, सुख या दुःख होता है उस क्षेत्र काल और द्रव्य के प्राश्रय से उदय में आने वाले कर्म के फलस्वरूप जीवन-मरण सुख या दु ख को अन्य कोई भी यहाँ तक इन्द्र या जिनेन्द्र भी निवार । टाल ) महीं सकते. क्योंकि, कोई एक किसी अन्य को कर्म नहीं दे सकता। जो ऐसा श्रद्धान करता है वह सम्यग्दष्टि है और जो इसमें शंका करता है अर्थात् यह मानता है कि मैं या इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कर्म दे सकते हैं और सुखी दूःखी कर सकते हैं, जिला या मार सकते हैं वह मिथ्यादृष्टि है।
श्री स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३१८.३२३ में कुदेवपूजन खंडन के लिये यह कहा है कि कोई भी अन्य जीव को लक्ष्मी नहीं दे सकता और न उपकार कर सकता है, क्योंकि, शुभ अशुभ (पुण्य-पाप) कर्म उपकार या अपकार करते हैं। यदि भक्ति या पूजा करने से व्यन्तरदेव लक्ष्मी देता है तो धर्म क्यों किया जावे ॥ ३१६-३२०॥ इसके पश्चात् गाथा ३२१ व ३२२ में इस विषय को पुष्ट करने के लिये कहते हैं कि व्यन्तरदेव की तो बात ही क्या. इन्द्र या जिनेन्द्र भी जीव के सुख, दुःख जीवन या मरण टालने में समर्थ नहीं हैं, गाथा ३२३ में यह कहा कि इसप्रकार की श्रद्धा करनेवाला सम्यग्दृष्टि है और जो इसमें शंका करके यह मानता है कि व्यन्तरदेव मुझको लक्ष्मी या सख आदि दे सकते हैं वह मिथ्यादष्टि है।' गाथा ३१८-३२३ में एक ही प्रकरण है जिसका 'नियति' से कुछ
नहीं है। गाथा ३२१-३२२ में 'नियति' का कथन नहीं है, क्योंकि इन दो गाथाओं में यह निषेध नहीं किया गया कि जीव स्वयं भी अपने पुरुषार्थ द्वारा अपने जन्म-मरण सुख को नहीं निवार सकता; किन्तु अन्य कोई नहीं टाल सकता यह कहा गया है। अतः स्वामिकार्तिकेय गाथा ३२१-३२३ का पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों से विरोध नहीं है।
श्री राजवातिक में भी इसीप्रकार कहा है-'भव्य के नियमितकाल करि ही मोक्ष की प्राप्ति है ऐसा कहना भी अनवधारणरूप है जातें कर्म की निर्जरा को काल नियमरूप नहीं है यात भव्यनि के समस्त कर्म की निर्जरापूर्वक मोक्ष की प्राप्ति में काल का नियम नहीं संभवे है। कोई भव्य तो संख्यातकाल करि मोक्ष प्राप्त हो गये और कोई असंख्यातकाल करि प्रौर कोई अनन्तकाल करि सिद्ध होयगे बहरि अन्य कोई भव्य हैं ते अनन्तानन्तकाल करि के भी सिद्ध न होंयगे । ताते नियमितकाल ही करि भव्य के मोक्ष की उत्पत्ति है ऐसा कहना युक्त नहीं, ऐसा जानना । नियमितकाल ही करि मोक्ष है यह कहना युक्त नाहीं। निश्चय करि जो सर्वकार्य प्रतिकाल इष्ट प्रत्यक्ष के विषयस्वरूप अथवा अनुमान के विषयस्वरूप बाह्य-प्राभ्यंतर कारण के नियम का विरोध आवे (श्री रा० वा० अ० १, सूत्र ३, पृ० ११५.११६ हस्तलिखित पं० पन्नालाल न्यायदिवाकर कृत अनुवाद )
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