Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१२०६ ]
[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
युषश्चोक्यान्मनुष्याः। तियंग्गतिनाम्नस्तियंगायुषश्चोदयात्तिर्यञ्चः। नरकगतिनाम्नो नरकायुषश्च उदयानारकाः। अमी मनुष्यावयः पर्याया नामकर्मनिर्वृत्ताः सन्ति तावत् ।' निगोद भी तिथंचपर्याय है जो तिर्यग्गति नामकर्म व नियंगायकम के उदय से होती है जैसा कि श्री पंचास्तिकाय व प्रवचनसारग्रंथ से स्पष्ट है। श्री कानजी स्वामी का यह कहना कि 'आत्मा की निगोदपर्याय कर्मभार से नहीं है' कैसे आगमानुकूल हो सकता है ? कर्मोदय से जीव की निगोदपर्याय मानने से अस्ति-नास्ति प्रादि सप्तभंगी के सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती। यदि कर्मोदय से जीव की निगोदपर्याय मानने से अस्ति-नास्ति के सिद्धान्त में बाधा आती होती तो आचार्यश्री प्रवचनसार व पंचास्तिकाय में ऐसा उपदेश क्यों देते ? श्री कानजीस्वामी की यूक्ति भी आगम विरुद्ध है।
-ज.सं. 15-1-59/V/ सो. अ. शाह, कलोल (गुजरात)
पर्याय अहेतुक नहीं होती शंका-श्री कानजीस्वामी ने आस्मधर्म वर्ष ८ अंक ३ पृष्ठ ५२ पर इसप्रकार लिखा है-"प्रवाह का वर्तमान अंश है सो वह अपने अंश से ही है। समय-समय का अंश अहेतुक है, सब पदार्थों का त्रिकाल का वर्तमान हरेकअंश निरपेक्षसत् है । वर्तमानपरिणाम पूर्वपरिणाम का व्ययरूप है, इसलिये वर्तमानपरिणाम को पूर्वपरिणाम की अपेक्षा ही रही नहीं तो फिर परपदार्थ के कारण से उसमें कुछ भी हो जाय, यह बात ही कहाँ रही।" क्या प्रत्येक समय की पर्याय का उत्पाद अहेतुक है ? क्या उत्तरपर्याय पूर्वपर्याय की अपेक्षा रखती है अर्थात् पूर्वपर्यायसहित द्रव्य उत्तरपर्याय को कारण है या नहीं?
समाधान-उत्पन्न होनेवाला वर्तमान हरेकअंश ( पाय ) कार्य है। कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति कहीं भी नहीं हो सकती, क्योंकि वैसा होनेपर अतिप्रसंग दोष भाता है (ष. खं. घ. पु. १२ पृ. ३८२ ) जो कार्य होता है वह कारण के बिना नहीं हो सकता ( आप्तपरीक्षा पृष्ठ २४७)। कारण के अभाव में कार्य (पर्याय ) की अनुत्पत्ति है ( अष्टसहस्री पृष्ठ १५९ )। उपजना व विनशना एक ही के आप ही ते अन्य कारण बिना होय नाहीं ( आप्तमीमांसा कारिका २४ पं० जयचन्दजी कृत भाषा टीका ) अतः इन आगमप्रमाणों से सिद्ध है कि हरेक समय के अंश का उत्पाद ( सत ) अहेतुक नहीं है।
पूर्वपर्याय की अपेक्षा से ही उत्तरपर्याय की उत्पत्ति होती है। जैसे पीपल में पूर्व ६३ पुट आजाने के पश्चात् ही ६४ वीं पुट आ सकती है। यदि पीपल में पूर्व ६३ पृट न दी जावे तो ६४ वीं पुटवाली चरपराहट की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। यदि ६४ वीं पुटवाली चरपराहट ६३ वीं पुट की अपेक्षा नहीं रखती तो पीपल में प्रथम पुट देने पर ही ६४ वीं पुट वाली चरपराहट क्यों उत्पन्न नहीं हो जाती। प्रागम में भी कहा है-'पूर्वपरिणामसहित द्रव्य है सो कारणरूप है बहुरि उत्तरपरिणाम युक्त द्रव्य है सो कार्यरूप नियमकरि है।' स्वामिकातिकेया. नप्रेक्षा गाथा २२२ । वर्तमानपरिणाम केवल पूर्वपर्याय की ही अपेक्षा नहीं रखता, किन्तु बाह्य सहकारीकारणों की भी अपेक्षा रखता है। कहा भी है—'बाह्यसहकारीकारण और अंतरंग उपादान कारण से कार्यको सिद्धि होय है ( अष्टसहस्रो पृष्ठ १४९ )।
___ स्फटिकमणि स्वयं शुद्ध है वह स्वयं लाल, पीला आदिरूप परिणमने में असमर्थ है, किन्तु लाल, पीले आदि परद्रव्य का संयोग होने पर वह स्फटिकमणि लाल, पीलीरूप परिणमती है। यह प्रत्यक्ष देखने में आता है। श्री समयसार गाथा २७८ में भी श्री १०८ कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है-"जैसे स्फटिकमणि आप शुद्ध है वह ललाई आदि रंगस्वरूप आप तो नहीं परिणमती, परन्तु वह दूसरे लाल, काले आदि द्रव्यों से ललाई आदि रंगस्वरूप परि
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