Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तिव प्रौर कृतिस्व ]
[ १२०५
समाधान - मिथ्यात्वसहित क्षायोपशमिकज्ञान को भी प्रज्ञान कहते हैं और ज्ञानावरणकर्म के उदय से ज्ञान के अभाव को भी अज्ञान कहते हैं ( मो. शा. अ. २, सू. ५ व ६ ) । 'अज्ञान' जीवद्रव्य व ज्ञानगुण की पर्याय है । पहले और दूसरे गुणस्थान में दोनों प्रकार का प्रज्ञान है । चौथे से बारहवें गुणस्थानतक ज्ञानावरणकर्मोदय से होनेवाला अज्ञान है । चौथे गुणस्थान में मिध्यात्वोदय का अभाव है अतः वहाँ से मिथ्याज्ञानरूपी अज्ञान का अभाव है । तेरहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण का क्षय हो जाने से सर्वथा अज्ञान का प्रभाव है ।
— जै. सं. 6-3-58/VI / गु. घ. शाह, लश्करवाले
(१) विचार तथा अनुभव ज्ञानगुण की पर्यायें हैं (२) पाँच भावों में जड़-चेतनरूप विभाजन
शंका- ता० २३-८-५६ के जैनसंदेश में आपने भाव को परिणाम ( पर्याय ) सिद्ध किया है। फिर विचार एवं अनुभव ( Thoughts and feelings ) क्या हैं ? विचारों एवं परिणामों में क्या अन्तर ? दोनों के क्या कारण हैं ? रागद्वेषभाव एवं परिणाम में क्या अन्तर है ? भाव जड़ है या चेतन ? पाँच प्रकार के भावों में कौन से जड़ हैं कौन से चेतन ?
समाधान- विचार एवं अनुभव ( Thoughts and feelings ) छद्मस्थ अवस्था में ज्ञानगुण की पर्याय हैं । हरएक द्रव्य व गुण की पर्याय को परिणाम कहते हैं, किन्तु विचार ज्ञानगुण की पर्याय है । अन्तरंग में परिणमनशक्ति बाह्य में कालद्रव्य इसके कारण हैं । रागद्वेषभाव चारित्रगुण की वैभाविकपर्याय है जो कि चारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म के उदय होने पर अवश्य होती है । परिणाम व्यापक है और रागद्वेषभाव व्याप्य हैं । भाव जड़ भी हैं और चेतन भी हैं । अचेतनद्रव्य के सर्वभाव जड़रूप हैं । चेतनद्रव्य के भाव चेतन भी हैं, किसी अपेक्षा से कुछ भाव अचेतन भी हैं । शंकाकार ने पांचभावों के नाम नहीं लिखे कि उसका किन पाँचभावों से प्रयोजन है । पारिणामिक जीवत्वभाव व क्षायिकभाव, क्षयोपशमिक व प्रोपशमिकभाव चेतना है । भव्यत्व, अभव्यत्व व औदयिकभाव चेतन भी हैं और जड़ भी हैं ।
निगोदपर्याय कर्मभार ( कर्मोदय ) से हुई है
शंका - आत्मधमं वर्ष ९ अंक २ पृष्ठ ३३ पर श्री कानजीस्वामी इस प्रकार लिखते हैं- "सिद्ध वा निगोव हरेक आत्मा अपने स्वचतुष्टय से अस्तिरूप है और कर्म के चतुष्टय का वामें अभाव है। निगोद जीव की अत्यन्त होन पर्याय है सो उनको अपना स्वकाल के कारण से ही है कर्मभार से नहीं है, ऐसा जो कोई न माने तो उनमें अस्ति नास्ति धर्म ही सिद्ध नहीं होगा ।' श्री कानजी स्वामी का ऐसा कहना क्या आगमअनुकूल है ?
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-- जै. सं. 2-1-58 / VI/ ला. घ. नाहटा
समाधान - श्रात्मा की स्वभाव और विभाव दो प्रकार की पर्याय होती हैं, उनमें से सिद्धरूप स्वभावपर्याय है और नर, नारकादि विभावपर्याय है ( पंचास्तिकाय गाथा ५ व १६ तात्पर्यवृत्ति ) । परद्रव्य के संबंध से निवृत्त होने के कारण ही नर, नारकादि पर्याय अशुद्ध हैं । श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है- 'सुरनारकतिर्यङ मनुष्यलक्षणाः परद्रव्यसंबंध निर्वृ त्तत्वादशुद्धाश्चेति' ( पंचास्तिकाय गाथा १६ टीका ) जीव की देव, मनुष्य, तिथंच व नरकपर्याय गतिनामा नामकर्म तथा आयुकर्म के उदय से होती हैं; जैसा कि पंचास्तिकाय गाथा ११८ की टीका में तथा प्रवचनसार गाथा ११८ की टीका में कहा है- 'देवगतिनाम्नो देवायुषश्चोदयाद्देवाः मनुष्यगतिनाम्नो मनुष्या
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