Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जन मुख्तार।
पंचास्तिकाय गाथा २३ की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है
"इह हि जीवानां पुहगलानां च सत्तास्वभावत्वावस्ति प्रतिक्षणमुत्पादध्ययध्रौव्यकवृत्तिरूपः परिणाम । स खलु सहकारिकारणसद्भावे दृष्टः। यस्तु सहकारीकारणं स कालः । तत्परिणामान्यथानुपपत्तिगम्यमानत्वावनुक्तोऽपि निश्चयकालोऽस्तीति निश्चीयते।"
इस जगत् में वास्तव में जीवों को और पुद्गलों को सत्तास्वभाव के कारण प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय ध्रौव्य की एक वृत्तिरूप परिणाम वर्तता है । वह उत्पाद, व्ययरूप परिणाम वास्तव में सहकारी कारण के सद्भाव में दिखाई देता है। उस उत्पाद, व्ययरूप परिणाम में जो सहकारीकारण है वह काल है । जीव और पुद्गल के उत्पाद-ध्ययरूप परिणाम की सहकारिकारण के बिना उत्पत्ति नहीं हो सकती इस अन्यथा अनुपपत्तिद्वारा 'काल' जाना जाता है।
परीक्षामुख में भी कहा है
"समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ॥ ६॥६३ ।। संस्कृत टीका-"निरपेक्षसमर्थतत्त्वस्य कार्यजनकस्वे सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गस्य दुनिवारत्वात् ।"
यदि घट आदि विशेष पर्यायरूप कार्य का उत्पाद व व्यय निरपेक्ष माना जायगा तो निरंतर घट की उत्पत्ति होनी चाहिये, क्योंकि घटरूप उत्पाद अन्य की अपेक्षा नहीं रखता, किन्तु घट को निरन्तर उत्पत्ति नहीं होती, प्रतः वह कुम्भकार आदि की अपेक्षा रखता है।
-ज. ग. 4-6-70/VII/ रो. ला. मित्तल (१) एक द्रव्य की पर्याय द्रव्यान्तर की पर्याय की निमित्तकर्ता होती है। (२) पुण्य विष्ठा नहीं है
शंका-सोनगढ़ से प्रकाशित श्री समयसार में प्रारम्भिक मंगलाचरण इसप्रकार है-भव्यजीवमनः प्रतिबोधकारकं पुण्यप्रकाशकं पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री समयसारनामधेयं अस्य मूलग्रंथकर्तारः श्री सर्वज्ञवेवास्तदुत्तरग्रंथकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्यश्री कुन्दकुन्दाचार्य देवविरचितं" इस पर यह शंका उत्पन्न होती है धी समयसार शास्त्र तो पौद्गलिक है जड़ है वह भव्य जीवों को प्रतिबोध करनेवाला कैसे हो सकता है ? पुण्य तो विष्टा है जिसको ज्ञानी पुरुष दूर से ही छोड़ देते हैं फिर पुण्य को प्रकाश करनेवाले श्री समयसारशास्त्र की स्वाध्याय क्यों करनी चाहिये पुण्य प्रणाशक शास्त्र की स्वाध्याय करनी चाहिये ? पुदगलमयी शास्त्र के कर्ता श्री सर्वज्ञदेव तथा गणधरदेव तथा उसके रचनेवाले श्री कुन्दकुन्दाचार्य जो चेतन हैं; कैसे हो सकते हैं ? पुद्गलमयी शास्त्र का कर्ता तो पुद्गल होना चाहिये, न कि चेतनमयो जीवद्रव्य । प्रारम्भिक मंगलाचरण में जो इसप्रकार कहा गया है, वह क्या वास्तविक है या मात्र लोगों को बहकाने के लिये लिखा गया है ? यदि वास्तविक है तो ऐसा क्यों कहा जाता है कि एकद्रव्य की पर्याय दूसरे द्रव्य को पर्याय को कर्ता नहीं है ? यदि अवास्तविक है तो जिस शास्त्र के प्रारम्भिक मंगलाचरण में ही अवास्तविकता है तो उस ग्रंथ में अवास्तविकता क्यों नहीं होगी?
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