Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
सम्यक्साथै ज्ञान होय में लक्षण श्रद्धा जान दुहूमें
सम्यक् कारण जान ज्ञान
युगपद होतें हू प्रकाश
भिन्न आराधो । भेद अबाधो ॥
कारज है सोई ।
दीपकतें होइ ॥ २४ ॥
जिसको छहढाला का भी बोध है वह यह नहीं कह सकता कि शास्त्रों में प्रसंयतसम्यग्दृष्टि का तो उल्लेख है असंयतसम्यग्ज्ञानी का उल्लेख नहीं है । साहचयं हेतु से असंयत सम्यग्दृष्टि कहने से ही असंयतसम्यग्ज्ञानी का ग्रहण हो जाता है ।
" सम्यक्ज्ञानी होइ बहुरि दिढ़ चारित लीजै ।" इन शब्दों द्वारा श्री पं० दौलतरामजी ने छहढाला में यह स्पष्ट कर दिया कि जब तक दृढ़ चारित्र नहीं लेता तबतक वह सम्यग्ज्ञानी असंयतसम्यग्ज्ञानी है ।
" सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ।" इस सूत्र द्वारा यह बतलाया गया है जो जीव सम्यग्दृष्टि व सम्यग्ज्ञानी तो है, किन्तु सम्यक्चारित्री नहीं है वह निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता । कहा भी है
"असंयतस्य च यथोदितात्मतत्वप्रतीतिरूपश्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपज्ञानं वा किं कुर्यात् । ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः ।" ( प्रवचनसार गाथा २३७ टीका )
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यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान असंयत को क्या करेगा ? इसलिये संयमशून्य आत्मश्रद्धान ( सम्यग्दर्शन ) व प्रात्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान से सिद्धि ( मुक्ति ) नहीं होती।
इसी बात को श्री अकलंकदेव ने कहा है
नाणं चरितहोणं लिगग्गहणं च दंसणविहूणं ।
संजमहोणो य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥ ५ ॥ शीलपाहुड
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने बतलाया है कि चारित्रहीन ( चारित्ररहित ) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन रहित
( सम्यग्ज्ञानरहित ) मुनिलिंग ( द्रव्यचारित्र ) और संयम हीन ( संयमरहित ) तप ये तीनों निरर्थक हैं, क्योंकि इन तीनों में से किसी को भी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा ।
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया । धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पङ्गुलः ॥
न्याय तीर्थ श्री पं० गजाधरलालजी तथा न्यायालंकार श्री पं० मक्खनलालजी कृत अर्थ - "चारित्र के बिना ज्ञान किसी काम का नहीं, जब ज्ञान किसी काम का नहीं तब उसका सहचारी दर्शन ( सम्यग्दर्शन ) भी किसी काम का नहीं । जिस तरह वन में आग लग जाने पर उसमें रहनेवाला लंगड़ा मनुष्य नगर को जानेवाले मार्ग को जानता है, 'इस मार्ग से जाने पर अग्नि से बच सकूंगा' इस बात का उसे श्रद्धान भी है, परन्तु चलनेरूप क्रिया नहीं कर सकता, इसलिये वहीं जलकर नष्ट हो जाता है। ज्ञान ( और दर्शन ) रहित क्रिया भी निरर्थक है। जिसतरह वन में आग लग जाने पर उसमें रहनेवाला अंधा जहाँ-तहाँ दौड़नेरूप क्रिया करता है, किन्तु उसको नगर में जानेवाले मार्ग का ज्ञान नहीं और न उसको यह श्रद्धान ही है कि अमुक मार्ग नगर में पहुँचाने वाला है, इसलिये वह वहीं जलकर नष्ट हो जाता है। इस रीति से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों ही माक्षमार्ग हैं।"
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