Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
। १९९५
का काल [ भव्य व अभव्य ] भी व्यंजनपर्याय है। कहा भी है-"अभवियभावो णाम वियंजणपज्जाओ, तेरणेवस्स विणासेण होदश्वमण्णहा दव्वत्तप्पसंगादो त्ति ? होदु वियंजणपज्जाओ, ण च वियंजणपज्जायस्स सन्चस्स विणासेण होदम्वमिवि णियमो अस्थि, एयंतवावप्पसंगादो। ण च ण विणस्सवि ति दवं होवि, उपाय-द्विवि-भंगसंगयस्स बस्वभावग्भुवगमादो।" [ धवला ७.१७८ ]
शंका-अभव्यभाव जीव की एक व्यंजनपर्याय का नाम है, इसलिये उसका विनाश अवश्य होना चाहिए, नहीं तो अभव्यत्व के द्रव्य होने का प्रसंग आ जायगा?
समाधान-अभव्यत्व जीव की व्यञ्जनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यञ्जनपर्याय का नाश अवश्य होना चाहिए। ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से एकान्तवाद का प्रसंग आ जायगा। ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य होनी ही चाहिए, क्योंकि जिसमें उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य पाये जाते हैं उसे द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है।'
-जे. सं. 20-6-57/--."" | श्री दि0 जैन स्वाध्याय मण्डल, कुचामन (१) भव्यमाव व प्रभव्यभाव पर्यायें हैं।
(२) सदा मोक्ष जाते रहने पर भी अक्षय अनन्त होने से भव्यों का प्रभाव नहीं होता।
शंका-निश्चयनय में जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, पारिणामिकभाव किस रूप में हैं ? आत्मा-आत्मा को समान बताते हए भी उनकी शक्ति में भव्यत्व अभव्यत्व को विभेद रेखा क्यों डाली गई है ? भव्यों के मोक्षगमन उपरांत क्या सभी अभव्य नहीं रह जावेंगे।
समाधान -निश्चयनय की अपेक्षा से 'शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है' वह अविनश्वर होने के कारण शुद्धपारिणामिकभाव कहा जाता है। निश्चय की अपेक्षा से भव्यत्व-अभव्यत्वभाव ही नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों पर्याय के आश्रित होने से पर्यायाथिक ( व्यवहार ) नय की अपेक्षा पारिणामिकभाव कहे जाते हैं। (वृ० द्रव्यसंग्रह गाथा १३ टीका )। द्रव्याथिक ( निश्चय ) नय की अपेक्षा भव्य व अभव्य दोनों जीवों में शक्ति समान है ( वृ० द्रव्य. संग्रह गाथा १४ की टीका) किन्तु पर्यायाथिकनय की अपेक्षा भव्य में केवलज्ञानादि व्यक्त हो जावेंगे और केवलज्ञानादि जो अभव्य में शक्तिरूप से हैं, व्यक्त नहीं होंगे। भव्यत्व व अभव्यत्वभाव गुण या शक्ति नहीं है, किन्तु व्यंजनपर्याय है। श्री षट्खंडागम पुस्तक ७ पृष्ठ १७८ पर कहा है 'अभव्यत्वजीव की व्यंजनपर्याय भले ही हो, पर सभी व्यंजनपर्याय का अवश्य नाश होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर एकान्तवाद का प्रसंग आ जायगा । ऐसा भी नहीं है कि जो वस्तु विनष्ट नहीं होती वह द्रव्य ही होनी चाहिये, क्योंकि जिसमें उत्पाद ध्रौव्य और व्यय पाये जाते हैं उसे द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है।'
जीव में भव्य व अभव्य का भेद द्रव्यदृष्टि से नहीं है और न शक्ति की अपेक्षा से भव्य-अभव्य का भेद है। पर्यायष्टि से जीवों के भव्य व अभव्य ऐसे दो भेद हैं। पर्याय अनेक होती हैं। पर्याय की अपेक्षा से अनेक भेद हैं। जैसे संसारी व मुक्त; त्रस व स्थावर; एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय; नारकी, तियंच, मनुष्य व देव; इत्यादि ।
१. नोट- भव्यत्व व अभव्यत्व दोनों अशुद्धव्यंजनपर्यायें हैं।
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