Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ११९३
अनुभूति ज्ञान को पर्याय है शंका--अनुभूति किसको कहते हैं ? समाधान-चेतना अथवा ज्ञान को अनुभूति कहते हैं। कहा भी है"चेतयंते अनुभवन्ति उपलभते विवंतीत्येकार्थाश्चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् ।"
पंचास्तिकाय गा० ३९ टीका अर्थ-चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है और वेदता है ये एकार्थ हैं, क्योंकि चेतना, अनुभूति; उपलब्धि और वेदना का एक अर्थ है।
"ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ।" प्रवचनसार गा० २४२ टीका।
ज्ञेयतत्त्व प्रौर ज्ञातृतत्त्व की तथा प्रकार अनुभूति जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है। इसप्रकार भी अमृतचन्द्राचार्य ने चेतना को अनुभूति कहा है।
चैतन्यमनुभूतिः स्यात् सा क्रियारूपमेव च ।
क्रिया मनोवचःकायेष्वन्विता वर्तते ध्वम ॥६॥ आलापपद्धति टिप्पण-"अनुभूतिर्जीवाजीवादि पदार्थानां चेतनमात्रम् ।" यहां पर भी श्रीमद्देवसेन आचार्य ने चैतन्य की अनुभूति कहा है । यह अनुभूति ज्ञान की पर्याय है।
-. ग. 23-7-70/VII/ रो. ला. मित्तल एक पर्याय दूसरी बार नहीं उत्पन्न होती। प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव तथा प्रत्यंतामाव की परिभाषा
शंका-क्या द्रव्य में अनादि से भूतकाल में जो पर्यायें अभी तक उत्पन्न नहीं हुई ऐसी नवीन नवीन पर्यायों को प्रतिसमय उत्पत्ति होती है या ये पर्याय दुबारा भी उत्पन्न हो सकती हैं ? यदि ऐसा है तो स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा की गाथा २४३ व २४४ से भारी विरोध पैदा होता है क्या?
समाधान-प्रतिसमय नवीन-नवीन पर्यायें उत्पन्न होती हैं । जो पर्याय उत्पन्न हो चुकी हैं उनका तो प्रध्वंस होकर अभाव हो चुका है, वे पर्यायें पुनः उत्पन्न नहीं हो सकती हैं किन्तु उनके सहश पर्यायें उत्पन्न हो सकती हैं। द्रव्य की एक पर्याय का दूसरी पर्याय में अध्यापोह अर्थात् इतरेतराभाव है, अन्यथा प्रतिनियत द्रव्य की सभी पर्याय सर्वात्मक हो जायेंगी अर्थात् एकद्रव्य की विभिन्न पर्यायों में कोई भेद नहीं रहेगा। श्री समन्तभद्राचार्य ने देवागम स्तोत्र में इसप्रकार कहा है
कार्य-द्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निहवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रध्यवेऽनन्तातां व्रजेत् ॥१०॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यावन्याऽपोहं-ध्यतिक्रमे ।
अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्यते सर्वथा ॥११॥ पर्याय के उत्पन्न होने के पूर्व में जो प्रभाव है वह प्रागभाव है। इस प्रागभाव को न मानने पर घटपटादि पर्यायें अपने-मपने स्वरूप लाभ ( उत्पाद ) के पूर्व में भी सद्भावरूप से विद्यमान ही रहनी चाहिये ।
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