Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
११७६ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
असंख्यातगुणवृद्धि जाकर अनन्तगुणवृद्धि का स्थान उत्पन्न होता है ।। २१९ । काण्डक का वर्ग और एक काण्डक प्रमाणबार अनन्तभागवृद्धियों के होने पर एकबार संख्यातभागवृद्धि होती है ।। २२० ।। कांडकवर्ग व एक कांडकबार असंख्यातभागवृद्धियों के होने पर एकबार संख्यातगुणवृद्धि होती है ॥ २२१ । काण्डक वर्ग और एक कांडकबार संख्यातभागवद्धियों के होने पर एकबार असंख्यातगुणवृद्धि होती है ।। २२२ ॥ कांडकवर्ग और एक कांडकबार संख्यातगुणवृद्धियों के होने पर एकबार अनन्तगुणवृद्धि का स्थान होता है ॥ २२३ ॥ संख्यातगुणवृद्धि के नीचे, काँडक का घन+दो कांडकवर्ग+एक कांडक इतनी बार अनन्तभागवृद्धियाँ होती हैं ।। २२४॥ एक बार प्रसंख्यात गुणवृद्धिस्थान के नीचे, कांडकघन+कांडकवर्ग+कांडक, इतनी बार असंख्यातभागवृद्धि होती है ।। २२५ ॥ अनंतगणवृद्धिस्थान के नीचे, एक कांडक घन+दो कांडकवर्ग+ एक कांडक, इतनी बार संख्यातभागवृद्धि होती है ।२२६॥ असंख्यातगणवृद्धि के नीचे, एक कांडकवर्ग का वर्ग+तीन कांडकघन+तीनकांडक वर्ग+ एककांडक, इतनी बार अनन्तभागवद्धि होती है ॥ २२७ ॥ अनन्तगुणवृद्धि के नीचे, एक कांडकवर्ग का वर्ग+तीन कांडकघन + तीन कांडक वर्ग+एक कांडक, इतनी बार असंख्यातभागवृद्धि होती है ।। २२८ ॥ अनन्तभागवृद्धि के नीचे, कांडक की घात५+ चार कांडकवर्ग का वर्ग + छह कांडकघन + चार कांडकवर्ग+एक कांडक, इतनी बार अनन्तभागवृद्धि होती है ।। २२९ ॥
उपसंहार-एक षट्स्थानपतित वृद्धि में पनन्तगुणवृद्धि एक बार, असंख्यातगुणवृद्धिकांडक (अंगुल का असंख्यातवाँभाग ) प्रमाणबार ( सूत्र २१९ ), संख्यातगुणवृद्धि कांडकवर्ग मोर एक कांडकप्रमाणबार होती है ( सूत्र २२३ ), संख्यातभागवृद्धि एक कांडकघन+दो कांडकवर्ग+एक कांडकप्रमाणबार होती है ( सूत्र २२६ ), असंख्या तभागवृद्धि एक कांडकवर्ग का वर्ग + तीन कांडकघन + तीन कांडकवर्ग + एक कांडकप्रमाणबार होती है (सूत्र २२८) प्रनम्तभागवद्धि कांडकघात ५+ चार कांडक वर्ग का वर्ग+ छह कांडकधन + चार कांडक वर्ग+ एक कांडकप्रमाणबार होती है।
इसीप्रकार छह हानिस्थान के विषय में जान लेना चाहिये। ये सब हानि व वृद्धि प्रसंख्यात समयों में होती है। सिद्धान्त के विरुद्ध एकसमय में षट्स्थानवृद्धि व हानि का कथन उचित नहीं है। अनार्ष-ग्रंथों में सिद्धान्त-विरुद्ध कथनों की संभावना रहती है । अतः आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय करना उचित है। अनार्ष पुस्तकों को पढने से सिद्धान्त विरुद्ध धारणा बन जाती है, जैसा कि प्रायः देखा जाता है।
-प्न.ग. 12-2-76/VI/ज.ला. प्न
प्रात्मा में वैभाविक शक्ति नहीं; स्वाभाविक शक्ति है
शंका-आत्मा में स्वाभाविक शक्ति है या वैमाविकशक्ति है या दोनों शक्तियां हैं ?
समाधान-आत्मा में वैभाविकशक्ति तो है नहीं, क्योंकि किसी भी दि. जैनाचार्य ने प्रात्मा में वैभाविकशक्ति का कथन नहीं किया है। समयसार की आत्मख्याति संस्कृत टीका के अन्त में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने आत्मा की ४७ शक्तियों का कथन किया है, उसमें भी वैभाविकशक्ति का कथन नहीं किया गया, किन्तु निम्न स्वाभाविक शक्तियों का कथन पाया जाता है
"सकलकर्मकृतज्ञातृत्वमात्रातिरिक्तपरिणामकरणोपरमात्मिका अकर्तृत्वशक्तिः। सकलकर्मकृत, ज्ञातृत्वमात्रातिरिक्तपरिणामानुभवोपरमात्मिका अभोक्तृत्वशक्तिः। सकलकर्मोपरमप्रवृत्तात्मप्रवेशनष्पद्यरूपा निष्क्रियत्वशक्तिः।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org