Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ११८७
- पर्याय सूक्ष्म है, ज्ञान का विषय है और क्षण-क्षण में नाश को प्राप्त होती रहती है । व्यंजनपर्याय स्थूल है, शब्दगोचर है, पर्थात् शब्दों द्वारा कही जा सकती है और चिरस्थायी है ।
श्री शुभचन्द्राचार्य ने भी ज्ञानार्णव में कहा है
मूर्ती व्यंजनपर्यायो वाग्गम्योऽनश्वरः स्थिरः । सूक्ष्मः प्रतिक्षणध्वंसी पर्यायश्चार्थसंज्ञिकः ।। ६।४५ ।।
यं पर्याय मूर्तिक है, वचन के गोचर है, अनश्वर है, स्थिर है । अर्थपर्याय सूक्ष्म है क्षणविध्वंसी है ।
श्री जयसेनाचार्य ने भी कहा है
"तत्रार्थ पर्यायाः सूक्ष्माः क्षणक्षयिणस्तथाऽवाग्गोचराऽविषया भवन्ति । व्यंजन पर्यायाः पुनः स्थूलाश्चिरकालस्थायिनो वाग्गोचराश्यस्थदृष्टिविषयाश्च भवन्ति । समयवर्तिनोऽयं पर्याया भव्यंते चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भव्यंते इति कालकृतो भेवः ।" ( पंचास्तिकाय गा० १६ की टीका )
अपर्याय सूक्ष्म है, प्रतिक्षण नाश होनेवाली है तथा वचन के अगोचर है । व्यंजनपर्याय स्थूल होती है, चिरकालतक रहनेवाली है, वचनगोचर व अल्पज्ञानी के दृष्टिगोचर भी होती है । अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय में कालकृत भेद है, क्योंकि एकसमयवर्ती अर्थपर्याय है और चिरकालस्थायी व्यंजनपर्याय है ।
स्वामीकार्तिकेयानुप्रक्षा पृ० ५७ व पृ० १५३ पर हिन्दी टीका में अथंपर्याय व व्यंजनपर्याय का लक्षण जो श्री पं० कैलाशचन्दजी ने लिखा है वह उनका अपना मत है, जो आषंवचनानुकूल नहीं है ।
- जै. ग. 2-3-72 / VI / कस्तूरचन्द जैन
श्रर्थ पर्याय एवं व्यंजन पर्याय का स्वरूप एवं भेद
शंका- अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय का क्या-क्या लक्षण है ? शुद्धजीवद्रव्य में और अशुद्धजीवद्रव्य में कौनसी अर्थपर्याय है और कौनसी व्यंजनपर्याय है ?
समाधान - पर्याय दो प्रकार की है १ अर्थपर्याय २ व्यंजनपर्याय |
"पर्यायास्ते द्व ेधा अर्थथ्यंजनपर्याय भेदात् ।। १५ ।। " ( आलापपद्धति )
सुहमा अवायविसया खणखइणो अस्थपज्जया दिट्ठा ।
वंजणपज्जाया पुण थूला गिरगोयरा चिरविवस्था ।। २५ ।। वसुनन्दि श्रावकाचार पर्याय के दो भेद हैं (१) अर्थ पर्याय (२) व्यंजनपर्याय । इनमें अर्थ पर्याय सूक्ष्म है, प्रत्यक्षज्ञान का विषय है, शब्दों से नहीं कही जा सकती और क्षण-क्षण में नाश को प्राप्त होती रहती है, किन्तु व्यंजनपर्याय स्थूल है, शब्दगोचर है और चिरस्थायी है ।
"तत्रार्थपर्यायाः सूक्ष्माः क्षणक्षयिणस्तथाऽवाग्गोचरा विषया भवन्ति । व्यंजनपर्यायाः पुनः स्थूलाश्चिरकालस्थायिनो वाग्गोचराश्यग्रस्थदृष्टिविषयाश्च भवन्ति । समयवर्तिनोऽर्थ पर्याया मण्यंते चिरकालस्थायिनो व्यंजन पर्यायाभयंते इति कालकृत मेवः ।' पंचास्तिकाय गा. १६ टीका
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