Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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ज्ञान सम्बन्धी विभाव गुण श्रर्थ पर्याय
शंका- अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त किसी वस्तु का मतिज्ञान ( मतिज्ञानोपयोग) होता है, यह विभावगुणव्यंजन पर्याय है; क्योंकि छस्थों के अन्तर्मुहूर्त बिना मात्र एक समय में विवक्षित वस्तु से उपयोग नहीं हटता । इसी विभावव्यंजन पर्याय के अन्मुहूतं कालरूप अवधि में जो प्रतिसमय ( केवली गम्य ) मतिज्ञान का सूक्ष्म परिणमन है वह विभावगुण अर्थपर्याय ही हुई; मेरे खयाल से तो यह ठीक है। कृपया समाधान करें ।
[ पं० रतनचन्द जंन मुख्तार :
समाधान - प्रतिसमय नवीन-नवीन देशघाती मतिज्ञानावरणकर्म का उदय होने की अपेक्षा अर्थपर्याय ( गुणअर्थपर्याय ) घटित हो जाती है ।
द्रव्यपर्याय एवं गुणपर्याय के दो-दो भेद
शंका-आलापपद्धति की टीका के पृ० ५२ पर लिखा है- 'द्रव्यपर्यायें और गुणपर्यायें दोनों ही अर्थ एवं व्यंजन पर्याय के भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। इन पर्यायों का कथन सूत्रकार स्वयं करेंगे।' इस कथन के अनुसार द्रव्यपर्याय के भी दो भेद होते हैं - १. द्रव्यव्यंजनपर्याय २ . द्रव्यअर्णपर्याय । परन्तु आलापपद्धति में द्रम्यअर्थपर्याय का कथन नहीं है । द्रव्यध्यंजनपर्याय का कथन तो है, क्योंकि द्रव्यपर्याय व्यंजनपर्यायरूप होती है । द्रव्यअर्थपर्याय का कथन आलापपद्धति में कहाँ पर है ?
- पल 25-11-79 / ज. ला. जैन, भीण्डर
समाधान - आलापपद्धति गाथा संख्या १ में श्री देवसेनाचार्य ने अर्थपर्याय का कथन किया है। गाथा इसप्रकार से है
अनाद्यनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ||१||
अनादि-अनन्त द्रव्य में अपनी-अपनी पर्यायें प्रतिक्षण ( प्रतिसमय ) उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं जैसे जल में लहरें उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं। 'जलकल्लोल' द्रव्यपर्याय है तथा 'द्रव्ये स्वपर्याया:' द्रव्य में अपनी-अपनी पर्याय; इन वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि गाथा १ में द्रव्यपर्याय का कथन है । 'प्रतिक्षणं उम्मज्जन्ति निमज्जन्ति' अर्थात् वे पर्यायें प्रतिक्षण ( प्रतिसमय ) उत्पन्न होती हैं और विनशती रहती हैं, यह वाक्य अर्थपर्याय का द्योतक है क्योंकि एकसमयवर्ती पर्याय प्रथंपर्याय होती है और चिरस्थायी पर्याय व्यंजन पर्याय होती है ।
समयवतनोऽपर्याया भव्यंते, रि/रकालस्थायिनो व्यंजनपर्याया भण्यंते । पं० का० गाया १६ । किन्तु इतनी भूल हुई कि टीका में यह अभिप्राय स्पष्ट नहीं किया गया ।
द्रव्य का लक्षण उत्पाद, व्यय, प्रोव्य है । आलापपद्धति सूत्र ६ र ७ इसप्रकार हैं
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सद्द्रव्यलक्षणम् ॥६॥ उत्पादव्यय धौम्ययुक्तं सत् ॥७॥
यदि प्रतिसमय द्रव्य का उत्पाद-व्यय न हो तो द्रव्य के अभाव का प्रसंग था जाएगा । द्रव्य का प्रतिसमय उत्पाद व्यय होना ही अर्थ द्रव्यपर्याय को सिद्ध करता है। सुदर्शनमेरु प्रादि पुद्गलद्रव्य भी अनादि-अनन्त व्यञ्जनद्रव्यपर्याय हैं, किन्तु प्रतिसमय उसमें से कुछ परमाणु निकलते रहते हैं भोर नवीन परमाणु आते रहते हैं, यह अद्रव्यपर्याय है ।
- पत्राचार / ज. ला. जैन, भीण्डर
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