Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १९८१
(१) संसारी जीवों के केवलज्ञान का प्रभाव है (२) मतिश्रुत केवलज्ञान के कथंचित् अंश हैं
(३) वेदक सम्यक्त्व, राग आदि पर्यायें हैं शंका-क्या संसारी जीवों के केवलज्ञान की अभी औवयिकपर्याय चल रही है ? क्या मतिध तज्ञान केवलज्ञान के अंश हैं ? यदि हैं तो किस अपेक्षा से? क्या क्षयोपशमसम्यक्त्व व चारित्ररूप हैं, अथवा पर्यायरूप? विस्तृत समझाइये।
समाधान-जैसे स्पर्श गुण एक है, किन्तु उसके ८ भेद हैं। उनमें से ४ भेद एक साथ रहते हैं । औदारिकशरीरवर्गणा, वैक्रियिकशरीरवर्गणा और आहारकशरीरवर्गणा तो आठस्पर्श वाली होती है; किन्तु तेजस, भाषा, मन व कार्मणवर्गणा ४ स्पर्शवाली होती है । [ धवल पु० १४ पृ० ५५५-५५९ ] इसीप्रकार ज्ञान के ५ भेद हैं । उनमें से ४ ज्ञानों की क्षायोपशमिकपर्याय तथा केवलज्ञान की औदयिकपर्याय होती है। क्षायोपशमिक ज्ञान तभी तक सम्भव है जब तक कि ज्ञानावरणकर्म है, किन्तु इस कर्म का क्षय हो जाने पर क्षायिक केवलज्ञान की क्षायिकपर्याय प्रकट होती है तथा ज्ञान की क्षायोपशमिकपर्याय नष्ट हो जाती है। ज्ञान के ये पाँच भेद भेदविवक्षा से है। अभेदविवक्षा में ज्ञान एक है। छद्मस्थअवस्था में उसके कुछ भविभागप्रतिच्छेद प्रकट रहते हैं। और शेष अविभागप्रतिच्छेदों पर आवरण रहता है। निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के सर्वजघन्य ज्ञान के जितने अविभागप्रतिच्छेद प्रकट हैं वे पूर्णज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों के अंश हैं। वे ही बढ़ते-बढ़ते पूर्णज्ञान ( केवलज्ञान ) के अविभागप्रतिच्छेद हो जायेंगे। जैसे द्वितीया का चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा का चन्द्रमा हो जाता है उसी प्रकार यहाँ भी ज्ञातव्य है। जैसे द्वितीया का चन्द्र पूर्णिमा के चन्द्र का अंश है उसी प्रकार अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक का पर्यायज्ञान भी केवलज्ञान का अंश है। केवलज्ञान मंगल रूप है; इसलिये उसका अंशपर्यायज्ञान भी मंगलरूप है। क्षायोपशमिकज्ञान व क्षायिकज्ञान की अपेक्षा पर्यायज्ञान केवलज्ञान का अंश नहीं है।
गुण अनादि-अनन्त हैं, ऐसा भी एकान्त नियम नहीं है। स्वाभाविक अगुरुलघुगुण का संसारी जीव के प्रभाव पाया जाता है। जिसका कि आठों कर्मों का भय होने पर आविर्भाव होता है ।
[राजवातिक अ० ८ सूत्र ११ वा० १२ एवं धवल पु० ६।५८ ] अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा मतिज्ञान आदि पूर्ण ज्ञान के अंश हैं । इस अपेक्षा से ये गुण हैं। क्षायोपशमिकज्ञान की दृष्टि से ये विभावपर्यायें हैं। इसीप्रकार क्षायोपमिकसम्यक्त्व व क्षायोपशमिकचारित्र भी विभाव. पर्यायें हैं, विभावगुण नहीं। जैसे कि राग-द्वेष गुण नहीं हैं, किन्तु चारित्रगुण की विभावपर्यायें हैं।
क्षायोपशमिकज्ञान की अपेक्षा मतिज्ञान प्रादि ज्ञानगुण की विभावपर्यायें हैं, क्योंकि इनमें देशघातिकर्मोदय की अपेक्षा है । इस दृष्टि से ये गुण नहीं हैं। विभागप्रतिच्छेद की अपेक्षा ये स्वभाव [ गुण ] हैं, क्योंकि पूर्णज्ञान के अंश हैं।
पार्षग्रन्थों में जितना भी कथन है वह सब किसी न किसी प्रपेक्षा को लिए हुए है । कोई विवक्षित कथन किस अपेक्षा से है, वह अपनी बुद्धि से समझने की बात है।
-पन 9-10-80/I-II/ ज. ला. जैन, भीण्डर
ज्ञेयत्व अथवा प्रमेयत्व शंका-याव और प्रमेयस्व में शब भेव है या भाव (अर्थ) भेद भी है ?
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