Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[११५७
द्रव्यगुरण पर्याय-गुण
द्रव्य व गुण
शंका-द्रव्य की सिद्धि गुणों के समुदाय से होती है या कैसे, क्योंकि गुणों के समुदाय को द्रव्य कहते हैं और ऐसा भी कहते हैं कि द्रव्य के आषय गुण हैं पर एकगुण में दूसरागुण नहीं है तो क्या गुण द्रव्य के आश्रित है या गुणों का समुदाय सो द्रव्य है ?
समाधान-द्रव्य का लक्षण 'सत्' कहा है। त० सू० ५।२९ । 'सत्' का लक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य' है सूत्र ३० । प्रतः द्रव्य की सिद्धि 'सत्ता' से अथवा एक ही समय में होनेवाले उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से होती है। द्रव्य तो अखण्ड है जिसमें प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होता है। ध्रौव्य अंश को गुण तथा उत्पाद, व्यय अंश को पर्याय कहते हैं। अतः द्रव्य को गुणपर्यायवाला कहा है। हरएक द्रव्य में अनन्त शक्तियाँ होती हैं. क्योंकि एक द्रव्य से नानाकार्य होते हुए देखे जाते हैं जैसे अग्नि के दाह, ताप, पाचन, प्रकाश प्रादि कार्य और ये शक्तियां कभी नष्ट नहीं होती। एक शक्ति दूसरी शक्तिरूप नहीं हो जाती और न एक शक्ति दूसरी शक्ति का कार्य करती है। अत: एक शक्ति में दूसरी शक्ति का अभाव है अथवा एक शक्ति अन्य दूसरी शक्ति से रहित है। इन शक्तियों का नाम गुण है । अतः मोक्षशास्त्र अ० ५ सूत्र ४१ में गुण का लक्षण द्रव्याश्रयानिर्गुणाः गुणाः कहा है । इन गुणों की और गुणों की सत्ता भिन्न-भिन्न नहीं है। जो द्रव्य के प्रदेश हैं वे ही प्रत्येक गुण के प्रदेश हैं, किन्तु संज्ञा, संख्या, लक्षण पादि की अपेक्षा से द्रव्य और गुण में भेद है। द्रव्य अवयवी और गुण अवयव है। अवयव-अवयवी से सर्वथा भिन्न नहीं होता है। इन अपेक्षाओं को रखकर यदि यह कहा जावे कि गुणों का समुदाय द्रव्य है तो कोई बाधा नहीं है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्रत्येकगुण की सत्ता भिन्न-भिन्न थी और इनको मिलाकर द्रव्य बना है जिसप्रकार ईटों के मिलने से मकान बनता है।
-जं. सं. 4-10-56/VI/ क. दे. गया
धर्म व गुण में अन्तर शंका-धर्म और गुण में क्या अन्तर है ?
समाधान-वस्तु में गुण भी होते हैं और धर्म भी । गुण स्वभावभूत हैं । इनकी प्रतीति पर-निरपेक्ष होती है। धर्मों की प्रतीति परसापेक्ष होती है। पर्यायानुसार धर्मों का आविर्भाव व तिरोभाव यथासंभव होता रहता है। जीव में ज्ञानदर्शन, सुख, वीर्य आदि असाधारणगुण व वस्तुत्व, सत्त्व, प्रमेयत्व आदि साधारणगुणों की सत्ता और प्रतीति परनिरपेक्ष व स्वाभाविक है। छोटा-बड़ा, पितृत्व, पुत्रत्व, गुरुत्व-शिष्यत्व आदि धर्म सापेक्ष है। यद्यपि इन धर्मों का सद्भाव जीव में है पर ज्ञान आदि के समान स्वरसतः गुण नहीं है। इसप्रकार गुण और धर्म में अन्तर है। गुणों को भी 'धर्म' शब्द के द्वारा कहा जा सकता है इसप्रकार गुण तो धर्म हो सकते हैं, किन्तु सभी धर्म गुण नहीं हो सकते।
-जं. सं. 27-11-58/V/ कपूरीदेवी गया
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