Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
१. प्रगुरुलघुगुण का स्वरूप एवं उसको प्राप्ति का उपाय
२. संसारी जोवों में प्रगुरुलघुगुरण विभाव परिणमन किये हुए है शंका-अगुरुलघुगुण क्या है और वह कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-श्री देवसेनाचार्य ने अगुरुलघुगुण का लक्षण आलापपद्धति में निम्नप्रकार कहा है'सूक्ष्मा अवाग्गोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणाद् अभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणाः ।' आलापपद्धति अगुरुलघुगुण सूक्ष्म है, वचन के अगोचर है, प्रतिक्षण परिणमनशील है आगमप्रमाण से जाना जाता है।
यह अगुरुल घगुण सामान्यगुण है सब द्रव्यों में पाया जाता है और इस अगुरुलघु के परिणमन के कारण शुद्धद्रव्यों में षड् वृद्धिरूप और षड्हानिरूप परिणमन पाया जाता है।
पुद्गलपरमाणु के अतिरिक्त प्रत्येक शुद्धद्रव्य में प्रतिसमय जो स्वभावअर्थपर्याय हो रही है वह अगुरुलघुगुण के कारण ही हो रही है, क्योंकि शुद्धद्रव्य के अन्य गुणों के अविभागप्रतिच्छेदों में हानि-वृद्धि नहीं होती है मात्र अगुरुलघुगुण के अविभागप्रतिच्छेदों में हानि-वृद्धि होती है और यही स्वभावअर्थपर्याय है।
'गुणविकाराः पर्यायास्ते द्वधा अर्थव्यंजनपर्यायभेदात् । अर्थपर्यायास्ते द्वधा स्वभावविभावपर्यायभवात् । अगुल्लघुविकाराः स्वभावार्थपर्यायास्ते द्वादशधा षड्वृद्धिरूपाः षड्ढानिरूपाः।' आलापपद्धति
गुणविकार को गुणपर्याय कहते हैं। अर्थपर्याय व व्यंजनपर्याय के भेद से वह दो प्रकार की है। स्वभावअर्थपर्याय और विभावअर्थपर्याय के भेद से अर्थपर्याय भी दो प्रकार की है। अगुरुल घुगुणविकार स्वभावअर्थपर्याय है जो बारह प्रकार की है, क्योंकि उस अगुरुल घुगुण के अविभाग प्रतिच्छेदों में (अनन्तवेंभाग, असंख्यातवेंभाग, संख्यातवेंभाग, संख्यातगुणो, असंख्यातगुणी और अनन्तगुणी ) छह प्रकार को वृद्धि व छह प्रकार की हानि नियतक्रम से होती रहती है।
संसारावस्था में जीव के कर्मोदय के कारण इस अगुरुलघुगुण का अभाव रहता है क्योंकि कर्मोदय के कारण ज्ञानादि गुणों में हानि-वृद्धिरूप परिणाम होता है । धवलग्रंथ में कहा भी है
'अगुल्लघत्त णाम जीवस्स साहावियमस्थि चे ण संसारावस्थाए कम्मपरतंतम्मि तस्साभावा। ण च सहावविणासे जीवस्स विणासो, लक्खणविणासे लक्खविणास्स जाइयतादो। ण च णाण दंसणे मुच्चा जीवस्स अगूरुलहअत्तं लक्खणं, तस्स आयासादीसु वि उवलंमा।'
अगुरुलघु जीव का स्वाभाविकगुण नहीं है, क्योंकि संसारावस्था में कर्म-परतंत्र जीव में स्वाभाविकअगुरुल घुगुण का प्रभाव है। यदि कहा जाय कि स्वभाव का विनाश मानने पर जीव का विनाश प्राप्त होता है सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि लक्षण का विनाश होने पर लक्ष्य का विनाश होता है ऐसा न्याय है, किन्तु ज्ञानदर्शन को छोड़कर अन्य जीव का लक्षण नहीं है। अगुरुलघु भी जीव का लक्षण नहीं है, क्योंकि वह आकाश आदि अन्य द्रव्यों में भी पाया जाता है अतः अगुरुल घुगुण का प्रभाव हो जाने पर भी ( विभावरूप परिणमन हो जाने पर भी ) जीव का अभाव नहीं होता है । कर्मों का नाश करने पर स्वाभाविक अगुरुलघुगुण प्राप्त होता है।
श्री अंकलंकदेव ने भी राजवातिक में कहा है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org