Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
ओष्ठ, घंटा आदि स्कन्ध शब्द के बहिरंग कारण हैं। इन दोनों कारणों के मिलने से शब्द प्रगट होता है। एकप्रदेशी परमाणु शब्द का न तो अंतरंग कारण है और न बहिरंग कारण है, किन्तु भाषावर्गणारूप स्कन्ध का कारण है, क्योंकि परमाणुसमूह का संघात ही तो भाषावर्गणारूप स्कन्ध है । अर्थात् परमाणु में भाषावर्गणारूप परिणमन करने की शक्ति है और भाषावर्गणा शब्द का अंतरंगकारण है। इस परम्परा से परमाणु को शब्द का कारण कहा गया है।
"परमाणः शब्दस्कन्ध, परिणति शक्ति स्वभावात् शब्दकारणम् ।"
परमाणुसमूह भाषावर्गणास्कन्धरूप परिणमन किये बिना प्रत्येक परमाणु पृथक्-पृथक् शब्दरूप परिणमन करने में अशक्य है इसीलिये गाथा ७८ की टीका में कहा है कि एकप्रदेशी परमाणू को अनेकप्रदेशात्मक शब्द के साथ एकत्व होने में विरोध है।
परमाणु एक प्रदेशात्मक होने से जलधारण करने में अशक्य है। किन्तु परमाणुसमूह का बंध होकर जब घटपर्यायरूप परिणमन हो जाता है तो घट में जल धारण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है । घट में जल भर देने से घट की जलधारण शक्ति व्यक्त हो जाती है। घट में जल निकाल लेने पर जलधारणशक्ति तो रहती है, किन्तु शक्ति की व्यक्ति नहीं रहती है। घटपर्याय नष्ट हो जाने पर जलधारण शक्ति भी नष्ट हो जाती है। घटपर्याय उत्पन्न होने पर जलधारणशक्ति उत्पन्न होती है और जल भर देने पर जल धारण शक्ति की व्यक्तता होती है। यदि किसी की यह मान्यता हो कि एकप्रदेशी परमाणु में जलधारण की शक्ति है जो कि घटपर्यायरूप उत्पन्न होने पर व्यक्त होती है तो उसने शक्ति और व्यक्ति का यथार्थ स्वरूप ही नहीं समझा।
-ज'. ग.7-2-66/IX/ र. ला. जन ज्ञानदर्शनगुण, उनको पर्याय व उपयोग शंका-ज्ञान और दर्शन क्या चेतनागुण की पर्याय हैं या चेतनागुण के दो भेव हैं? यदि ज्ञान और वर्शन को चेतना गुण के भेद मानकर दोनों को भिन्न गुण माना जावे तो छमस्थ अवस्था में ज्ञान और वर्शन दोनों युगपत होने चाहिये थे, क्योंकि इनमें दोनों को कोई न कोई पर्याय प्रतिसमय रहनी चाहिये और यदि ज्ञान व दर्शन के चेतनागुण को पर्याय मानी जावे तो केवलीभगवान में ज्ञान व दर्शन युगपत नहीं होने चाहिये, क्योंकि एकसमय में एक गुण की दो पर्याय नहीं हो सकती।
समाधान-ज्ञान और दर्शन ये दोनों जीव के स्वतन्त्र भिन्न-भिन्न गुण हैं । जीव के ये दो गुण ही ऐसे हैं जो चेतनारूप हैं अन्य गुण चेतनारूप नहीं हैं अतः इन ज्ञान व दर्शन दोनों गुणों को चेतना संज्ञा दी गई है। पाठ. प्रकार के कर्मों में ज्ञानावरण और दर्शनावरण दो पृथक-पृथक् कर्मों का निर्देश किया गया है। यदि ये दोनों पृथक गुण न होते और एक चेतना गुण ही होता तो ज्ञानावरण और दर्शनावरण के स्थान पर एक चेतनावरण कर्म का निर्देश होता। अतः ज्ञान और दर्शन दो पृथक-पृथक् गुण हैं।
इन दोनों गुणों का विषय भी भिन्न-भिन्न है । ज्ञान का विषय बाह्यपदार्थ है और दर्शन का विषय अंतरंग. पवार्य है। ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार है।
छमस्थ अवस्था में भी ज्ञान की क्षायोपशमिकपर्याय और दर्शन की क्षायोपश मिकपर्याय युगपत् पाई जाती है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादि रूप ज्ञान की क्षायोपश मिकपर्याय पाई जाती है । अचक्षुदर्शन चक्षुदर्शनादिरूप दर्शनगुण
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